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________________ समयसाराधिकारः । | १४५ विनाचरन्नात्मानं नरकादिषु गमयति तथा परान् कुत्सितोपदेशेन भावयन तान्नरकादिषु प्रवेशयतीति ततस्तस्मादपि भेतव्यमिति ॥६६॥ अभ्यन्तरयोगविना बाह्ययोगानामफलत्वं दर्शयन्नाह घोडयलद्दिसमाणस्स बाहिर बगणिहुदकरणचरणस्स । अभंतरम्हि कुहिदस्स तस्स दु कि बज्झजोगेहि ॥६६६॥ घोटकव्युत्सर्गसमानस्यांत.कुथितस्य बाह्य न बकस्येव निभृतकरचरणस्य तस्येत्थंभूतस्य मूलगुणरहितस्य कि बाह्य वृक्षमूलादिभिर्योगर्न किंचिदपीत्यर्थस्तस्माच्चारित्रे यत्नः कार्य इति ।।९६६।। बहकालश्रमणोऽहमिति च मा गर्व कृथा यत: मा होह वासगणणा ण तत्थ वासाणि परिगणिज्जंति । बहवो तिरत्तवुत्था सिद्धा धीरा विरग्गपरा समणा ॥६६७॥ मा भवतु वर्षगणना मम प्रवजितस्य बहूनि वर्षाणि यतोऽयं लघुरद्य प्रजित इत्येवं गवं मा कृघ्वं, यतो न तत्र मुक्तिकारणे वर्षाणि गण्यन्ते । बहुकालश्रामण्येन मुक्तिर्भवति नवं परिज्ञायते यस्माद्ववस्त्रिरात्रिमात्रोषितचरित्रा अन्तर्मुहुर्तवृत्तचरित्राश्च वैराग्यपरा धीराः सम्यग्दर्शनादो निष्कम्पा: श्रमणाः सिद्धा बिना आचरण करता है वह स्वयं को नरक आदि गतियों में पहुँचा देता है और अन्य जनों को भी कुत्सित उपदेश के द्वारा उन्हीं दुर्गतियों में प्रवेश करा देता है, इसलिए ऐसे आचार्य से भी डरना चाहिए। अभ्यन्तर योगों के बिना बाह्य योगों की निष्फलता है, उसे ही कहते हैं गाथार्थ-घोड़े की लीद के समान अन्तरंग में निन्द्य और बाह्य से बगुले के सदृश हाथपैरों को निश्चल करनेवाले-साधु के बाह्ययोगों से क्या प्रयोजन ? ॥६६६॥ प्राचारवृत्ति-जो घोड़े की लीद के समान अन्तरंग में कुथित-निन्द्य-भावना युक्त एवं बाह्य में बगुले के समान हाथ-पैरों को निश्चल करके खड़े हैं अर्थात् जो अन्तरंग में निन्द्य भाव सहित हैं, बाघ क्रिया और चारित्र को कर रहे हैं तथा मूलगुण से रहित हैं ऐसे मुनि को बाह्य वृक्षमूल आदि योगों से क्या लाभ ? अर्थात् कुछ भी लाभ नहीं है। इसलिए चारित्र में यत्न करना चाहिए, यह अभिप्राय है। 'मैं बहुतकाल का श्रमण हूँ ऐसा गर्व मत करो क्योंकि गाथार्थ-वर्षों की गणना मत करो क्योंकि वहाँ वर्ष नहीं गिने जाते । बहुत से विरागी धीर श्रमण तीन रात्रिमात्र ही चारित्रधारी होकर सिद्ध हो गये हैं ॥६६७॥ आचारवृत्ति-वर्षों की गणना मत करो, 'मुझे दीक्षा लिये बहुत वर्ष हो गये हैं। मुझसे यह छोटा है, आज दीक्षित हुआ है' इस प्रकार से गर्व मत करो क्योंकि वहाँ मुक्ति के कारण में वर्षों की गिनती नहीं होती है। बहुतकाल के मुनिपन से मुक्ति होती हो ऐसा नहीं जाना जाता है क्योंकि बहुतों ने तीन रात्रि मात्र ही चारित्र धारण किया है ! और तो और, किन्हीं ने अन्तर्मुहूर्त मात्र ही चारित्र का वर्तन किया है किन्तु वैराग्य में तत्पर धीर-सम्यग्दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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