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समसाराधिकारः ]
तथा
fक काहदि वणवासो सुण्णागारो य रुक्खमूलो वा । भुंजदि श्राधाकम्मं सव्वे वि णिरत्थया जोगा ।। ६२५ ।।
कि तस्स ठाणमोणं किं काहदि श्रब्भोवगासमादावो । मेत्तिविहूणो समणो सिज्झदि ण हु सिद्धिकंखो वि ॥ ९२६ ॥
कि करिष्यति तस्य वनवासः किं वा शून्यागारवासो वृक्षमूलवासो वा भुंक्त चेदधःकर्म तत्र सर्वेऽपि निरर्थका योगा इति । ।। २५ ।।
तथा
किं तस्य स्थानं कायोत्सर्गः मोनं वा किं तस्य करिष्यति अप्रावकाश आतापो वा यो मैत्रीभावरहितः श्रमणः सिद्धिकांक्षोऽपि नैव स्फुटं सिध्यतीति ॥ २६ ॥
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जह वोसरित्तु कति विसं ण वोसरदि वारुणो सप्पो । तह को वि मंदसमणो पंच व सुणा ण वोसरदि ॥ ६२७ ।।
यथा सर्पो रौद्रः कृत्ति कंचुकं व्युत्सृज्य विषं न त्यजति तथा कश्चिन्मंदः श्रमण: चारित्रालसः पंचशूना न व्युत्सृजति भोजनादिलोभेनेति ॥ ६२७॥
कास्ता: पंचशूना इत्याशंकायामाह -
गाथार्थ - जो अधःकर्म युक्त आहार लेते हैं उनका वन में रहना, शून्य स्थान में रहना, अथवा वृक्ष के नीचे ध्यान करना क्या करेगा ? उनके सभी योग निरर्थक हैं ||२५|| उसके कायोत्सर्ग और मौन क्या करेंगे ? क्योंकि मैत्रोभाव से रहित वह श्रमण मुक्ति का इच्छुक होते हुए भी मुक्त नहीं होगा ।। ६२६ ॥
आचारवृत्ति - जो साधु अधः कर्म से बने हुए आहार ले लेते हैं उनका वन में निवास, शून्य मकानों में आवास अथवा वृक्ष के मूल में निवास क्या करेगा ? अर्थात् उनके सभी योग व्यर्थ ही हैं। उनका कायोत्सर्ग, अथवा मौन क्या करेगा ? अम्रावकाश योग अथवा आतापन योग भी क्या करेगा ? जो श्रमण मैत्रीभाव प्राणिदया से रहित हैं वे सिद्धि के इच्छुक होते हुए भी सिद्ध नहीं हो सकते, यह अभिप्राय है ।
उसी बात को और बताते हैं
गाथार्थ - जिस प्रकार क्रूर सर्प कांचली को छोड़कर के भी विष को नहीं त्यागता है, उसी प्रकार मन्द चारित्रवाला श्रमण पंचसूना को नहीं छोड़ता है ॥ ६२७ ॥
श्राचारवृत्ति - जैसे रौद्र सर्व कांचली को छोड़कर भी विष नहीं त्यागता है वैसे ही चारित्र में आलसो श्रमण भोजन आदि के लोभ से पंचसूना को नहीं छोड़ता है । वे पंचसूना क्या हैं, ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
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