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________________ समयसाराधिकारः] [ १२५ मलगुणानहिंसादिव्रतानि छित्वा विनाश्य श्रमणः साधुर्यो गृह्णाति च बाह्य योगं वृक्षमूलादिकं तस्य साधोर्बाह्या योगा: सर्वे मूलविहीनस्य मूलगुणरहितस्य किं करिष्यन्ति यावता हि न किंचिदपि कुर्वन्ति नापि कर्मक्षयं करिष्यन्तीति ॥२०॥ तावदहिंसादिव्रतं विनाश्य यः करोत्युत्तरगुणं तस्य दोषमाह हंतूण य बहुपाणं अप्पाणं जो करेदि सप्पाणं । अप्पासुअसुहकखी मोक्खकखी ण सो समणो॥२१॥ बहुप्राणान् हत्वा बहून् जीवान् बसस्थावरादीन् हत्वाऽधःकर्मादिभिरात्मानं यः करोति सप्राणं सावद्याहारं भुक्त्वाऽऽत्मनो बलोपचयं यः कुर्यात्सः साधुरप्रासुकसुखकांक्षी येन सुखेन नरकादीन् भ्रमति तदीहतेऽसौ मोक्षकांक्षी नासौ श्रमण:-सर्वकर्मक्षयविमुक्ति नेच्छतीति ॥२१॥ दृष्टान्तेन दोषमाह एक्को वावि तयो वा सीहो वग्यो मयो व खादिज्जो। जदि खादेज्ज स णीचो जीवयरासि णिहंतूण ॥२२॥ एक्को वावि-एकं वाऽपि मृगं शशकं वा, तयो वा-त्रीन् वा, द्वौ चतुरो वा मृगान् सिंहो मृगारिव्याघ्रः शार्दूलो वा समुच्चयार्थः तेनान्योऽपि गृह्यते शरभादिः । खादेज्ज-खादयेद् यदि भक्षयेत् स नीचोऽधमः पापिष्ठो जीवराशि निहत्य । यदि एकं द्वौ त्रीन् वा जीवान् सिंहो व्याघ्रो वा खादयेत् स नीच इत्युच्यते प्राचारवृत्ति-जो साधु अहिंसा आदि व्रतरूप मूलगुणों की हानि करके वृक्षमल,आतापन आदि बाह्य योगों को धारण करता है, मूलगुण रहित उस साधु के वे सभी बाह्य योगों के अनुष्ठान क्या कर सकेंगे ? अर्थात् वे कुछ भी नहीं कर सकते हैं। तात्पर्य यही है कि मूलगुण की हानि करने वाले साधु के वे उत्तरगुण कर्मक्षय नहीं कर सकते हैं। जो अहिंसावत का विनाश करके उत्तरगुण पालता है पहले उसके दोष बतलाते है गाथार्थ जो बहुत से प्राणियों का घात करके अपने प्राणों की रक्षा करता है, अप्रासुक में सुख का इच्छुक वह श्रमण मोक्ष सुख का इच्छुक नहीं है ।। ६२१॥ प्राचारवृत्ति-जो अधःकर्म आदि के द्वारा बहुत से त्रस-स्थावर आदि जीवों का घात करके अपने शारीरिक बल के लिए सावद्य आहार को ग्रहण करते हैं वे साधु अप्रासुक सुख अर्थात् जिस सुख से नरक आदि गतियों में भ्रमण करना पड़ता है ऐसे सावद्य सुख की इच्छा करते हैं अतः वे श्रमण सर्वकर्मक्षयरूप मोक्ष को नहीं चाहते हैं, ऐसा समझना। दृष्टान्त द्वारा उसके दोष बताते हैं-- गाथार्थ-सिंह अथवा व्याघ्र एक, दो या तीन मृग को खावे तो हिंस्र है और यदि साधु जीव राशि का घात करके आहार लेवे तो वह नीच है ॥ ६२२ ।।। __ आचारवृत्ति-कोई सिंह अथवा व्याघ्र या अन्य कोई हिंस्र प्राणी एक अथवा दो या तीन अथवा चार मृगों का भक्षण करते हैं तो वे हिंस्र पापी कहलाते हैं। तब फिर जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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