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[मूलाचारे
पूजिता ददतां प्रयच्छंतु समाधि मरणकालेऽन्यस्मिंश्च काले संयमपूविकां भावपंचनमस्कारपरिणति बोधि च दर्शनविशुद्धि च नान्यत्किचिदपि याचेऽहमिति ॥८९३॥'
इति श्री मदट्टकेराचार्यवर्यप्रणीते मूलाचारे वसुनन्द्याचार्य-प्रणीताचार
वृत्त्याख्यटोकासहिते नवमः परिच्छेदः ॥' पूजित अनगार मुनियों की स्तुति की है। वे मुझे समाधि और बोधि दें। मरणकाल में काय और कषाय की कृशतारूप सल्लेखना का नाम समाधि है तथा अन्य काल में भी संयमपूर्वक पंचनमस्कार मन्त्र में जो भावपरिणति है उसका नाम भी समाधि है । दर्शनविशुद्धि का नाम बोधि है। वे महामुनि इस बोधि और समाधि को मुझे दें, बस यही मेरी एक याचना है और अन्य किंचित् मात्र भी मैं नहीं मांगता हूँ। श्री वसुनन्दि आचार्य कृत 'माचारवृत्ति' नामक टीका से सहित वट्टकेराचार्यवर्य प्रणीत
मूलाचार में नवम परिच्छेद पूर्ण हुआ।
१. इस गाथा के अनन्तर फलटन से प्रकाशित मूलाचार में तीन गाथाएं और हैं
उवदो कालह्मि सदा तिगुत्तिगुत्ते पुणो पुरिससीहे ।
जो थुणदि य अणुरत्तो सो लहदि लाहं तिरयणस्स ।' अर्थ-जो अनुरागी होकर नित्य ही त्रिगुप्ति से सहित पुरुषसिंह-महामुनियों की स्तुति करता है वह तीन रत्न प्राप्त कर लेता है ।
एवं संजमरासिं करेंति जे संजदा ववसिदप्पा।
ते णाणदंसणधरा देंतु समाहिं च मे बोहिं॥ अर्थ-उत्तम तपश्चरण में तत्पर महाव्रत आदि संयम के भार से युक्त और दर्शन ज्ञान के धारक मुनीश्वर मुझे समाधि और बोधि प्रदान करें।
अणगार-भावनगुणा भए अभित्थुदा महाणुभावा ।
अणगार-वीदरागा देंतु समाहिं च मे बोहि ॥ अर्थ-महाप्रभावशाली अनगार भावना के गुणों की मैंने स्तुति की है। वे वीतराग अनगार मुझे समाधि और बोधि प्रदान करें।
२.०० इत्याचार्यश्रीवसुनन्दिविरचितायां आचारवती नवमः परिच्छेदः समाप्त इति ।
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