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अनगारभावनाधिकारः]
यः शृणोतीममनगाराणां स्तवं तस्यापि फलमाह
भत्तीए मए कहियं अणयाराण त्थवं समासेण ।
जो सुणदि पयदमणसो सो गच्छदि उत्तमं ठाणं ॥८६१॥' भक्त्या मया कथितमिममनगारस्तवं संक्षेपेण यः शृणोति प्रयतमनाः संयतात्मा सन् स गच्छत्त्युत्तमं स्थानमिति ॥८६॥
तथा च--
एवं संजमरासि जो काहदि संजदो ववसिदप्पा ।
दसणणाणसमग्गो सो गाहदि उत्तमं ठाणं ॥८६२॥' यः पुनरेवं संयमराशि करोति संयतो व्यवसितात्मा दर्शनज्ञानसमग्रः स गच्छत्युत्तमं स्थानमित्यत्र किमत्राद्भुतमस्तीति ॥८६२॥ अनगारभावनां संक्षेपयन्मंगलं च कुर्वन्नाह
एवं मए अभिथुदा अणगारा गारवेहि उम्मुक्का।
धरणिधरेहि य महिया दंतु समाधि च बोधि च ॥८६३॥' एवमनेन प्रकारेण मयाभिष्टुता अनगारा गौरवैरुन्मुक्ता धरणीधरैः पृथिवीपतिभिश्च महिताः जो अनगारों के इस स्तव को सुनते हैं उनके भी फल को बताते हैं
गाथार्थ -मैंने भक्ति से अनगारों का स्तव संक्षेप से कहा है। जो प्रयत्नचित्त हो इसे सुनता है वह उत्तम स्थान को प्राप्त कर लेता है ॥८६१॥
टीका सरल है। उसी प्रकार से और भी कहते हैं
गाथार्थ-जो उद्यमशील संयत इस प्रकार की संयमराशि को ग्रहण करता है वह दर्शन और ज्ञान से परिपूर्ण होता हुआ उत्तम स्थान प्राप्त कर लेता है ॥२॥
आचारवृत्ति जो उद्यम में तत्पर हुआ मुनि उपर्युक्त संयम समूह को ग्रहण करता है वह दर्शन और ज्ञान से परिपूर्ण होकर उत्तम-मोक्ष-स्थान प्राप्त कर लेता है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
अब अनगार भावना को संक्षिप्त करते हुए मंगल करते हैं
गाथार्थ-मैंने इस प्रकार गौरवों से रहित और पृथ्वीपतियों से पूजित अनगारों की स्तुति की है। वे मुझे बोधि और समाधि प्रदान कर ।।८६३॥
__ आचारवृत्ति-इस प्रकार से मैंने गौरवों से रहित और चक्रवर्ती आदि राजाओं से
१. अन्तिम चरण बदला है यथा-"सो पावदि सब्वकल्लाणं।" २. यह गाथा फलटन से प्रकाशित मलाचार में नहीं है। ३.क. समाहिं च बोहिं च ।
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