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________________ अनगारभावनाधिकारः] [६१ . बाह्यतपसां मध्ये दुश्चरं तावत्कायक्लेशं तपः प्रतिपादयन्नाह-... हेमंते धिदिमता सहति ते हिमरयं परमघोरं । अंगेसु णिवडमाणं णलिणीवणविणासयं सीयं ॥८६५॥ हेमंते हिमवत्काले परमघोरे दग्धाशेषवनस्पतिविशेषे प्रचंडवातसमूहकंपिताशेषजंतुनिवहे धृतिमंतः परमधर्यप्रावरणसंवृताः, सहन्ते ते मुनयो हिमरजः पतत्प्रालेयसमूहं परमघोरं सुष्ठ रौद्रमंगेषु निपतदाचरणान् मस्तकं यावत्पतद्धिमं । किविशिष्टं तद्धिमरजः ? नलिनीवनविनाशकं पद्मिनीखंडदहनसमर्थ, उपलक्षणमात्र मेतत तेन सर्वभूतविनाशकरण समर्थं सहन्त इति ॥८६५।। अभ्रावकाशं व्याख्यायातापनस्वरूपमाह ---- जल्लेण मइलिदंगा गिटे उण्णादवेण दड्ढंगा। चेट्ठति णिसिठेंगा सूरस्स य अहिमुहा सूरा ॥८६६॥ जल्लं सर्वांगोद्भूतमलं तेन मलिनांगा वल्मीकसमाना निःप्रतीकारदेहाः; ग्रीष्मे प्रचंडमार्तडगभस्तिहस्तशोषिताशेषाद्रभावे दवदहनसमानतष्णाक्रांतसमस्तजीवराशी उष्णातपेन 'दीप्यमानकिरणजालदग्धांगा बाह्य तपों में दुश्चर जो कायक्लेश तप है उसको बतलाते हैं गाथार्थ-हेमन्त ऋतु में कमलवन को नष्ट करनेवालो ठण्ड तथा शरीर पर गिरती हुई परमघोर बर्फ को धैर्यशाली मुनि सहन करते हैं ।।८६५।। प्राचारवृत्ति-शीतकाल में परमघोर तुषार के गिरने से सम्पूर्ण वनस्पतियाँ जल जाती हैं, प्रचण्ड हवा-शीत लहर के चलने से सभी प्राणी समूह काँप उठते हैं, ऐसे समय में परमधैर्य रूप आवरण से अपने शरीर को ढकने वाले वे मुनिराज गिरते हुए हिमकणों को, तुषार को सहन कर लेते हैं। जो तुषार भयंकर है, पैर से मस्तक तक उन्हें व्याप्त कर रहा है, जो कि कमलिनी-वन को जलाने में समर्थ है अथवा यह कथन उपलक्षण मात्र है इससे यह समझना कि वह हिम सर्व प्राणीगण को नष्ट करने में समर्थ हैं ऐसे भयंकर तुषार को मुनिराज खुले स्थान में खड़े होकर धैर्यपूर्वक सहन कर लेते हैं। यह अभ्रावकाश योग का स्वरूप कहा गया है। अभ्रावकाशयोग का व्याख्यान करके आतापन का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-पसीने से युक्त धूलि से मलिन अंगवाले, ग्रीष्मऋतु में उष्ण घाम से शुष्कशरीरधारी, कायोत्सर्ग से स्थित शूर मुनि सूर्य को तरफ मुख करके खड़े हो जाते हैं ॥८६६॥ आचारवृत्ति-सर्वांग में उत्पन्न हुआ मल जल्ल कहलाता है, वे मुनि उस जल्ल से मलिन अंग धारण करते हैं अतः वामी के समान दिखते हैं, वे उस मल को दूर नहीं करते हैं। प्रचण्ड सूर्य की किरणों से सभी वस्तुओं का गीलापन जहाँ सूख चुका है, दावानल को अग्नि के समान तृष्णा से समस्त जीवराशि व्याकुल हो रही है ऐसी ग्रीष्म ऋतु से उष्ण घाम से जिनका शरीर दग्ध काठ के समान हो गया है, जो मुनि कायोत्सर्ग से स्थित होकर अपने शरीर के अव १.क. विणासणं। २. क. करणं। ३. क. दीप्यमानाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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