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________________ ६० । । मूलाचारे सत्ताधिय सप्पुरिसा मग्गं मण्णंति वीदरागाणं। अणयारभावणाए भावति य णिच्चमप्पाणं ॥८६३॥ .... सत्वाधिकाः सर्वोपसगैरप्यकंप्यभावाः, सत्पुरुषाः 'यथोक्तचरितचारित्रा मार्ग सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मन्यतेऽभ्युपगच्छन्ति । केषां मागं? वीतरागाणां निर्दग्धमोहनीयरजसामनगारभावनया च कथित'स्वरूपया भावयंति चात्मानमिति ॥८६३॥ वाक्यशुद्धि निरूप्य तपःशुद्धिं च निरूपयन्नाह णिच्चं च अप्पमत्ता संजमसमिदीसु झाणजोगेसु। तवचरणकरणजुत्ता हवंति सवणा समिदपावा ॥८६४॥ नित्यं च सर्वकालमपि अप्रमत्ताः पंचदशप्रमादरहिताः संयमे प्राणरक्षण इन्द्रियनिग्रहे समितिष ध्याने धर्मध्याने शुक्लध्याने च योगेषु नाना-विधावग्रहविशेषेषु द्वादशविधे चरणे करणे च त्रयोदशविधे शमितपापाः संतः श्रमणा उद्युक्ता भवंति । एवंविशिष्टे सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रतपोविषये तदुपकरणे च सर्वपापक्रियानिवृत्ताः सन्तोऽभीक्ष्णमायुक्ता भवंतीति ॥८६४॥ गाथार्थ-वे शक्तिशाली साधु वीतरागदेवों के मार्ग को स्वीकार करते हैं और अनगार भावना के द्वारा नित्य ही आत्मा की भावना करते हैं ।।८६३॥ प्राचारवृत्ति-जो सभी प्रकार के उपसर्गों के आने पर भी चलायमान नहीं होते हैं व सत्त्वाधिक पुरुष हैं, जो आगम कथित उपयुक्त आचरण को धारण करनेवाले हैं ऐसे दढ़ चारित्रवान साधु मोहनीय और ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा अन्तराय इन कर्मों को नष्ट करने वाले ऐसे वीतरागदेव के सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप मार्ग को माननेवाले होते हैं। वे महामुनि इस कही जानेवाली अनगार भावना से निरन्तर अपनी आत्मा को भाते रहते हैं। वाक्यशुद्धि का निरूपण करके अब तपशुद्धि को कहते हैं गाथार्थ-वे श्रमण संयम तथा समिति में ध्यान तथा योगों में नित्य ही प्रमादरहित होते हैं एवं तप, चारित्र तथा क्रियाओं में लगे रहते हैं अतः पापों का शमन करनेवाले होते हैं ॥८६४॥ प्राचारवृत्ति-वे साधु हमेशा ही पन्द्रह प्रकार के प्रमादों से रहित होते हैं। प्राणीरक्षण और इन्द्रियनिग्रह संयम में, पाँचों समितियों में, धर्मध्यान और शुक्लध्यान में नाना प्रकार के नियम रूप योगों के अनुष्ठान में, बारह प्रकार के तपश्चरण में, तेरह प्रकार के चारित्र में एवं तेरह प्रकार को क्रियाओं में सतत उद्यमशील रहते हुए पापों को समित करनेवाले होते हैं । इन गुण विशिष्ट सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और उनके उपकरण-साधनों में सर्वपाप क्रिया से निवृत्त होते हुए सतत उद्यमशील रहते हैं। भावार्थ-पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्ति ये तेरह विध चारित्र हैं। पंच परमेष्ठी को नमस्कार, छह आवश्यक-क्रिया तथा असही और निसही ये तेरह विध क्रियाएँ हैं। १. क० यथोक्ताचरितं। २. क० कथितरूपया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001839
Book TitleMulachar Uttarardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages456
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size10 MB
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