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________________ मूलगुणाधिकारः] संस्तरिते प्रच्छन्ने दण्डेन धनुषा एकपाद्वेन मुनेर्या शय्या शयनं तत् क्षितिशयनव्रतमित्यर्थः। किमर्थमेतदिति चेत् इन्द्रियसुखपरिहारार्थं तपोभावनार्थं शरीरादिनिस्पृहत्वाद्यर्थं चेति ॥ अदन्तमनव्रतस्य स्वरूपं निरूपयन्नाह संगलिणदावलेणिकलीदिपासाणछल्लियादीटिं। दंतमलासोहणयं संजमगुत्ती अदंतमणं ॥३३॥ अंगुलि–अंगुलिः हस्ताग्रावयवः । गह-नखः कररुहः । अवलेहणि-अवलिख्यते मलं निराक्रियतेऽनया सा अवलेखनी दन्तकाष्ठं । कलिहि-कलिस्तृणविशेषः, अत्र बहुवचनं द्रष्टव्यं प्राकृतलक्षणबलात् । अंगुलिनखावलेखनीकलयस्तैः । पासाणं--पाषाणं । छल्लि-त्वक वल्कलावयवः । पाषाणं च त्वक च पाषाणत्वचं तदादिर्येषां ते पाषाणत्वचादयस्तैः पाषाणत्वचादिभिश्च । आदिशब्देन खर्परखण्डतन्दुलवर्तिकादयो गह्यन्ते। संजमगुत्ती-संयमगुप्तिः । दंतमलासोहणयं-दन्तानां मलं तस्याशोधनमनिराकरणं दन्तमलाशोधनं । संजमगुत्ती-संयमस्य गुप्तिः संयमगुप्तिः संयमरक्षा इन्द्रियसंयमरक्षणनिमित्तम् । 'समुदायार्थः-अंगुलिनखावलेखनीकलिभिः पाषाणत्वचादिभिश्च यदेतद्दन्तमलाशोधनं संयमगुप्तिनिमित्तं तददन्तमनव्रतं भवतीत्यर्थः । किमर्थ वीतरागख्यापनार्थ सर्वज्ञाज्ञानुपालननिमित्तं चेति ।। रूप प्रासुक भूमि-प्रदेश में दण्डरूप से, धनुषाकार से या एक पसवाड़े से जो मुनि का शयन करना है वह क्षितिशयन व्रत है। प्रश्न-यह किसलिए कहा है ? उत्तर-इन्द्रिय सुखों का परिहार करने के लिए, तप की भावना के लिए और शरीर आदि से निःस्पृहता आदि के लिए यह भूमिशयन व्रत होता है । अर्थात् पृथ्वी पर सोने से या तृण-घास पाटे आदि पर सोने पर कोमल-कोमल बिछौने आदि का त्याग हो जाने से इन्द्रियों का सुख समाप्त हो जाता है, तपश्चरण में भावना बढ़ती चली जाती है, शरीर से ममत्व का निरास होता है, और भी अनेकों गुण प्रकट होते हैं। अदंतधावन व्रत का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-अंगुली, नख, दांतोन और तृण विशेष के द्वारा पत्थर या छाल आदि के द्वारा दाँत के मल का शोधन नहीं करना यह संयम की रक्षारूप अदन्तधावन व्रत है ॥३३॥ प्राचारवृत्ति-अंगुली-हाथ के अग्रभाग का अवयव, नख, अवलेखनी-जिसके द्वारा मल निकाला जाता है वह दांतोन आदि, कलि-तृण विशेष, पत्थर और वृक्षों की छाल । यहाँ आदि शब्द से खप्पर के टुकड़े, चावल की बत्ती आदि ग्रहण की जाती हैं। इन सभी के द्वारा दांतों का मल नहीं निकालना यह इन्द्रियसंयम की रक्षा के निमित्त अदंतधावन व्रत है । समुदाय अर्थ यह हुआ कि अंगुली, नख, दांतोन, तृण, पत्थर, छाल आदि के द्वारा जो दंतमल को दूर नहीं करना है वह संयमरक्षा निमित्त अदंतमनव्रत कहलाता है । प्रश्न-यह किसलिए है ? १ क 'कलिं च । २ क कलि च। ३ क समु। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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