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________________ मूलगुणाधिकारः ] [ ३३ विषये । कयावराहसोहणयं - कृतश्चासावपराधश्च कृतापराधस्तस्य शोधनं कृतापराधशोधनं द्रव्यादिद्वारेण व्रतविषयोत्पन्न दोषनिर्हरणं । निदणरहणजुत्तो-- निन्दनमात्मदोषाविष्करणं, आचार्यादिषु आलोचनापूर्वकं दोषाविष्करणं गर्हणं, निन्दनं च गर्हणं च निन्दनगर्हणे ताभ्यां युक्तो निन्दनगर्हणयुक्तस्तस्य निन्दनगर्हणयुक्तस्यात्मप्रकाशपर प्रकाशसहितस्य । मणवचकाएण - मनश्च वचश्च कायश्च मनोवचः कायं तेन मनोवचः कायेन शुभमनोवचः काय क्रियादिभिः । परिक्कमणं - प्रतिक्रमणं स्वकृतादशुभयोगात्प्रतिनिवृत्तिः, अशुभ परिणामपूर्वक - कृतदोषपरित्यागः । निन्दनगर्हणयुक्तस्य मनोवाक्कायक्रियाभिर्द्रव्यक्षेत्रकालभावविषये तैर्वा कृतस्यापराधस्य व्रतविषयस्य शोधनं यत्तत् प्रतिक्रमणमिति ।। प्रत्याख्यानस्वरूपनिरूपणार्थमाह- णामादीनं छण्हं प्रजोगपरिवज्जणं तियरणेण । पच्चक्खाणं णेयं श्रणागयं चागमे काले ॥२७॥ णामावीणं - जातिद्रव्यगुणक्रियानिरपेक्षं संज्ञाकरणं नामाभिधानं तदादिर्येषां ते नामादयस्तेषां नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावानाम् । छण्हं - षण्णाम् । अजोगपरिवज्जणं-न योग्या अयोग्यास्तेषां नामादीनामयोग्यानां पापागमहेतूनां परिवर्जनं परित्यागः । तियरणेण — त्रिकरणः शुभमनोवाक्कायक्रियाभिः अशुभाभिधानं कस्यचिन्न करोमि, न कारयामि, नानुमन्ये, तथा वचनेन न वच्मि, नापि काथयामि नाप्यनुमन्ये, करना । अपने दोषों को प्रकट करना निन्दा है और आचार्य आदि गुरुओं के पास आलोचनापूर्वक दोषों का कहना गर्हा है । निन्दा में आत्मसाक्षीपूर्वक ही दोष कहे जाते हैं तथा गर्हा में गुरु आदि पर के समक्ष दोषों को प्रकाशित किया जाता है—यही इन दोनों में अन्तर है । इस तरह शुभ मन-वचन-काय की क्रियाओं के द्वारा, अपने द्वारा किये गये अशुभ योग से प्रतिनिवृत्त होना - वापिस अपने व्रतों में आ जाना अर्थात् अशुभ परिणामपूर्वक किये गये दोषों का परित्याग करना इसका नाम प्रतिक्रमण है । तात्पर्य यह है कि निन्दा और गर्हा से युक्त होकर साधु मन-वचन-काय की क्रिया के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के विषय में अथवा इन द्रव्यादिकों के द्वारा किये गये व्रत विषयक अपराधों का जो शोधन करते हैं उसका नाम प्रतिक्रमण है । अब प्रत्याख्यान का स्वरूप निरूपित करते हुए कहते हैं गाथार्थ - भविष्य में आनेवाले तथा निकटवर्ती भविष्यकाल में आनेवाले नाम, स्थापना आदि छहों अयोग्य का मन-वचन-काय से वर्जन करना -- इसे प्रत्याख्यान जानना चाहिए ॥ २७ ॥ Jain Education International श्राचारवृत्ति- -- पाप के आस्रव में कारणभूत अयोग्य नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव का मन-वचन-काय से त्याग करना प्रत्याख्यान है । शुभ मन-वचन-काय की क्रियाओं से किसी के अशुभ नाम को न मैं करता हूँ, न कराता हूँ, न करते हुए की अनुमोदना करता हूँ अर्थात् अशुभ नाम को न करूँगा, न कराऊँगा और न ही करते हुए की अनुमोदना करूँगा; उसी प्रकार न वचन से बोलूंगा न बुलवाऊँगा, न बोलते हुए की अनुमोदना करूँगा । न मनसे अशुभ नाम का चिन्तवन करूँगा, न अन्य से उनकी भावना कराऊँगा, न ही करते हुए की अनुमोदना For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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