________________
२८]
[मूलाचारे कर्कशश्च मृदुश्च कर्कशमृदू तावादिर्येषां ते कर्कशमृद्वादयः अष्टौ च ते भेदाश्चाष्टभेदाः कर्कशमृद्वादयश्च ते अष्टभेदाश्च कर्कशमृद्वाद्याटभेदास्तैर्युक्तः कर्कशमृद्वाद्यष्टभेदयुक्तस्तस्मिन् कर्कशमृदुशीतोष्णस्निग्धरूक्षगुरुलघुगुणविकल्पसमन्विते वनितातूलिकाद्याधारभूते। फासे-स्पर्श । सुहे-सुखे सुखहेतौ । असुहे य-असुखे' च दुःखहेतो । फासणिरोहो--स्पर्शनिरोधः स्पर्शनेन्द्रियजयः । असंमोहो-न सम्मोहः असम्मोहोऽनाह्लाद इत्यर्थः । जीवाजीवसमुद्भवे कर्कशमद्वाद्यष्ट भेदयुक्ते सुखासुखस्वरूपनिमित्ते स्पर्शविपये योऽयमसम्मोहोऽनभिलाषः स्पर्शनेन्द्रियनिरोधव्रतं भवतीत्यर्थः ।। पचेन्द्रियनिरोधव्रतानां स्वरूपं निरूप्य षडावश्यकव्रतानां स्वरूपं नामनिर्देशं च निरूपयन्नाह---
समदा थयो य वंदण पाडिक्कमणं तहेव णादव्वं ।
पच्चक्खाण विसग्गो करणीयावासया छप्पि ॥२२॥ समदा-समस्य भावः समता रागद्वेषादिरहितत्वं त्रिकालपंचनमस्कारकरणं वा। थवो-स्तव: चतुर्विंशतितीर्थकरस्तुतिः । वंदणा-वन्दना एकतीर्थकृत्प्रतिबद्धा दर्शनवन्दनादिपंचगुरुभक्तिपर्यन्ता वा। पडिक्कमणं---प्रतिक्रमणं प्रतिगच्छति पूर्वसंयमं येन तत् प्रतिक्रमणं स्वकृतादशुभयोगात्प्रतिनिवृत्तिः देवसिकादयः सप्तकृतापराधशोधनानि । तहेव--तथैव तेनैव प्रकारेणागमाविरोधेनैव । णादव्वं--ज्ञातव्यं सम्यगवबोद्धव्यम् । पच्चक्खाणं--प्रत्याख्यानमयोग्यद्रव्यपरिहारः, तपोनिमित्तं योग्यद्रव्यस्य वा परिहारः । विसग्गोव्युत्सर्गः, देहे ममत्वनिरासः जिनगुणचिन्तायुक्तः कायोत्सर्गः । करणीया-करणीया अनुष्ठेयाः । आवसया
वस्त्र आदि के निमित्त से होने पर अचेतनजन्य माने जाते हैं। ये सुख हेतुक हों या दुःख हेतुक, इनमें आह्लाद नहीं करना अर्थात् हर्ष-विषाद नहीं करना-यह स्पर्शनेन्द्रियजय है। तात्पर्य यह है कि जीव या अजीव से उत्पन्न हुए, कर्कश आदि आठ भेदों से युक्त, सुख अथवा दुःख में निमित्तभूत स्पर्श नामक विषय में जो अभिलाषा का नहीं होना है वह स्पर्शनेन्द्रिय निरोध व्रत है।
पाँचों इन्द्रियों के निरोधरूप व्रतों का स्वरूप बताकर अब छह आवश्यक व्रतों का स्वरूप और नाम निर्देश बताते हुए कहते हैं
गाथार्थ--सामायिक, स्तुति, वन्दना, प्रतिक्रमण और उसी प्रकार प्रत्याख्यान तथा व्युत्सर्ग ये करने योग्य आवश्यक क्रियाएँ छह ही जानना चाहिए ॥२२॥
प्राचारवृत्ति-समभाव को समता कहते हैं अर्थात् राग-द्वेषादि से रहित होना, अथवा त्रिकाल में पंचनमस्कार का करना। चतुर्विंशति तीर्थंकरों की स्तुति स्तव है। एक तीर्थंकर से सम्बन्धित वन्दना है अथवा दर्शन, वन्दन आदि में जो ईर्यापथ-शुद्धिपूर्वक चैत्यभक्ति से लेकर पंचगुरु भक्तिपर्यन्त क्रिया है अर्थात् विधिवत् देववन्दना क्रिया है वह वन्दना आवश्यक है। पूर्वसंयम के प्रति जो गमन करना है, प्राप्त करना है वह प्रतिक्रमण है अर्थात् अपने द्वारा किये हुए अशुभ योग से प्रतिनिवृत्त होना–छूटना। इसके देवसिक आदि सात भेद हैं जोकि सात प्रसंग से किये गये अपराधों का शोधन करनेवाले हैं। अयोग्य द्रव्य का त्याग करना प्रत्याख्यान है अथवातपश्चरण के लिए योग्य द्रव्य का परिहार करना भी प्रत्याख्यान है । शरीर से ममत्व का त्याग करना और
१क असुखहेतौ २ क त्वं क्रियाकलापं च ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.