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[मुलाचारे
पयडीवासणगंधे-प्रकृतिः स्वभावः, वासना अन्यद्रव्यकृतसंस्कारः, प्रकृतिश्च वासना च प्रकृतिवासने ताभ्यां गन्धः सौरभ्यादिगुण: प्रकृतिवासनागन्धस्तस्मिन् स्वस्वभावान्यद्रव्यसंस्कारकृते सौरभ्यादिगुणे । जीवाजीवप्पगे—-जीवति जीविष्यति जीवितपूर्वो वा चेतनालक्षणो जीवः सुखदुःखयोः कर्ता, न जीवोऽजीवस्तद्विपरीतः, जीवश्चाजीवश्च जीवाजीवौ तौ प्रगच्छतीति जीवाजीवप्रग: जीवाजीवस्वरूपः तस्मिन जीवाजीवस्वरूपे कस्तूरीयक्षकर्दमचंदनादिसुगन्धद्रव्ये । सुहे-सुखे स्वात्मप्रदेशालादनरूपे । असुहे--असुखे स्वप्रदेशपीडाहेतौ सुखदुःखयोनिमित्ते। रागद्देसाकरणं-रागश्च द्वेषश्च रागद्वेषो तयोरकरणं अनभिलाष: रागद्वेषाकरणमनुरागजुगुप्सानभिलाषः । घाणगिरोहो-घ्राणेन्द्रियनिरोधः घ्राणेन्द्रियाप्रसरः । मुणिवरस्स--मुनीनां वरः श्रेष्ठो मुनिवरः यतिकुञ्जरस्तस्य मुनिवरस्य । जीवगते अजीवगते च प्रकृतिगन्धे वासनागन्धे च सुखरूपेऽसुखरूपे च यदेतद्रागद्वेषयोरकरणं मुनिवरस्य तत् घ्राणेन्द्रियनिरोधव्रतं भवतीत्यर्थः ।। चतुर्थरसनेन्द्रियनिरोधव्रतस्वरूपनिरूपणार्थमाह
असणादिचदुवियप्पे पंचरसे फासुगम्हि णिरवज्जे। इट्ठाणिट्ठाहारे दत्ते जिब्भाजयो'ऽगिद्धी ॥२०॥
प्राचारवृत्ति-स्वभाव को प्रकृति कहते हैं, अन्य द्रव्य के द्वारा किये गये संस्कार को वासना कहते है और सुरभि आदि गुण को गन्ध कहते हैं। जो जीता है, जियेगा और पहले जीवित था वह जीव है अथवा चेतना लक्षणवाला जीव है जो कि सुख और दुःख का कर्ता है। जीव के लक्षण से विपरीत लक्षणवाला अजीव है। इन जीव और अजीव को प्राप्त होनेवाली अर्थात जीव और अजीव स्वरूप से गन्ध दो प्रकार की होती है। इसमें से कस्तूरी मृग की नाभि से उत्पन्न होती है, अतः यह जीवस्वरूप गन्ध है। यक्षकर्दम, चन्दन आदि अजीव स्वरूप गन्ध हैं । जो सुगन्धित हैं वे अपनी आत्मा के प्रदेशों में आलादनरूप सुख की निमित्त हैं। इनसे विपरीत जीव-अजीव रूप दुर्गन्ध आत्म-प्रदेशों में पीड़ा के निमित्त होने से दुःखरूप हैं। इनमें राग-द्वेष नहीं करना अर्थात् अनुराग और ग्लानि का भाव नहीं होना-यह मुनिपुंगवों का घ्राणेन्द्रिय निरोध नाम का व्रत है। तात्पर्य यह कि जीवगत और अजीव जो स्वाभाविक अथवा अन्य निमित्त से की गयी गन्ध हैं जो कि सुख और दुःख रूप हैं अर्थात् अच्छी या बुरी हैं उनमें जो राग-द्वेष का नहीं करना है वह मुनिवरों का घ्राणेन्द्रियनिरोध व्रत है।
विशेषार्थ:-जिसमें कस्तूरी, अगुरु, कपूर और कंकोल समान मात्रा में डाले जाते हैं वह यक्षकर्दम है अथवा महासुगन्धित लेप यक्षकर्दम कहलाता है।
अब चौथे रसना इन्द्रियनिरोध का स्वरूप निरूपण करने के लिए कहते हैं
गाथार्थ-अशन आदि से चार भेदरूप, पंच रसयुक्त, प्रासुक, निर्दोष, पर के द्वारा दिये गये रुचिकर अथवा अरुचिकर आहार में लम्पटता का नहीं होना जिह्वाइन्द्रियनिरोध व्रत है ॥२०॥
१. क षः अननुरागजु। २. जऊ द.। * कर्पूरागुरुकस्तूरीकक्कोलर्यक्षकर्दमः इत्यमरकोशः ।
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