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________________ २२] [मूलाचारे वक्तव्यं मक्षिपत्रपक्ष्मद्वयादि । एवं श्रोत्रेन्द्रियघ्राणेन्द्रियरसनेन्द्रियस्पर्शनेन्द्रियाणां बाह्याभ्यन्तरभेदेन द्वैविध्यम् । भावेन्द्रियमपि द्विविधं लब्ध्युपयोगभेदेन । लम्भनं लब्धिः । का पुनरसौ ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमविशेषः । यत्सन्निधानादात्मा द्रव्येन्द्रियनिवृत्ति प्रति व्याप्रियते सा लब्धिः । तन्निमित्त आत्मनः परिणाम उपयोगः कारणवस्य कार्ये दर्शनात् । वीर्यान्तरायमतिज्ञानावरणक्षयोपशमांगोपांगनामलाभावष्टम्भवादात्मना स्पृश्यतेऽनेनेति स्पर्शनम्, रस्यतेऽनेनेति रसनम्, घ्रायतेऽनेनेति घ्राणम्, चष्टेऽर्थान् पश्यत्यनेनेति चक्षुः श्रूयतेऽनेनेति श्रोत्रम् | स्वातन्त्र्यविवक्षा च दृश्यते कर्तृकरणयोरभेदात् । इदं मे चक्षुः सुष्ठु पश्यति । अयं मे कर्णः सुष्ठु शृणोति । स्पृशतीति स्पर्शनम् । रसतीति रसनम् । जिघ्रतीति घ्राणम् । चष्टे इति चक्षुः । शृणोतीति श्रोत्रमिति । एवमिन्द्रियाणि पंच । तद्विषयाश्च पंच । वर्ण्यत इति वर्णः । शब्द्यते इति शब्दः । गन्ध्यत इति गन्धः । रस्यत इति रतः । स्पृश्यत इति स्पर्शः इति । पंचसंख्यावचनमेतत् । सगसगविसहितो – स्वकीयेम्यः स्वकीयेभ्यो विषयेभ्यो रूपशब्दगन्धरसस्पर्शेभ्यः स्वभेद भी दो भेद हैं । चक्षु इन्द्रिय का काला और सफेद जो मण्डल है वह आभ्यन्तर उपकरण है और नेत्रों की पलक विरूनि आदि बाहा उपकरण हैं । ऐसे ही श्रोत्रेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय इनमें बाह्य और आभ्यन्तर निर्वृत्ति तथा उपकरण के भेदों को समझना चाहिए । भावेन्द्रियों के भी दो भेद हैं-लब्धि और उपयोग । लंभनं लब्धिः अर्थात् प्राप्त करना लब्धि है । वह ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम विशेष है अर्थात् जिसके सन्निधान से आत्मा द्रव्येन्द्रिय की रचना के प्रति व्यापार करता है वह लब्धि है । उस निमित्तक आत्मा का परिणाम उपयोग है क्योंकि कारण का धर्म कार्य में देखा जाता है । वीर्यान्तराय और मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामक नामकर्म के लाभ से प्राप्त हुए बल से आत्मा जिसके द्वारा स्पर्श करता है वह स्पर्शन है । इन्हीं उपर्युक्त कर्मों के क्षयोपशम और उदय के बल से अर्थात् वीर्यान्तराय, कर्म और मतिज्ञानावरण के अन्तर्गत रसनेन्द्रिय आवरण कर्म के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय से आत्मा जिसके द्वारा चखता है उसको रसना कहते हैं । इसी प्रकार आत्मा जिसके द्वारा सूंघता है वह घ्राणेन्द्रिय है । आत्मा जिसके द्वारा पदार्थों को 'चष्टे' अर्थात् देखता है वह चक्षु है और जिसके द्वारा सुनता है वह श्रोत्र है । ये उपर्युक्त लक्षण करण की अपेक्षा से कहे गये हैं अर्थात् 'स्पर्श्यतेऽनेनेति स्पर्शनम्' इत्यादि । इस व्युत्पत्ति के अर्थ में इन्द्रियाँ अप्रधान हैं । इनमें स्वातन्त्र्य विवक्षा भी देखी जाती है क्योंकि कर्ता और करण में अभेद पाया जाता है । जैसे- 'इदं मे चक्षुः सुष्ठु पश्यति' इत्यादि । अर्थात् यह मेरी आँख ठीक से देखती है, यह मेरा कान अच्छा सुनता है, इत्यादि । इसी प्रकार जो स्पर्श करता है वह स्पर्शन इन्द्रिय है, जो चखता है वह रसना है, जो सूंघता है वह घ्राण है, जो देखती है वह चक्षु है और जो सुनता है वह कान है । इस प्रकार ये इन्द्रियाँ पाँच हैं । इन इन्द्रियों के विषय भी पाँच प्रकार के हैं--जो देखा जाता है वह वर्ण है; जो ध्वनित होता है, सुना जाता है वह शब्द है; जो सूंघा जाता है वह गन्ध है; जो चखा जाता है वह रस है और जो स्पर्शित किया जाता है वह स्पर्श है | गाथा में 'पंच' शब्द संख्यावाची है । स्वकीय भेदों से भेदरूप सुन्दर और असुन्दर ऐसे रूप, शब्द, गन्ध, रस तथा स्पर्श स्वरूप अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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