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________________ भी ऐसी ही धारणा रही । किन्तु पं० नाथूराम प्रेमी मुख्तार सा० मत से सहमत नहीं हुए और उन्होंने स्थान विशेष के नाम से प्रसिद्ध 'वट्टकेर' नामक किसी अज्ञात कन्नडिग दिगम्बराचार्य को इस ग्रन्थ का कर्ता अनुमानित किया। इस प्रकार मूलाचार का कृतित्व विवाद का विषय बन गया । विद्वानों का एक वर्ग उसे कुन्दकुन्द प्रणीत कहता है तो एक दूसरा वर्ग उसे वट्टकेर नामक एक स्वतन्त्र आचार्य की कृति मान्य करता है, और ऐसे भी अनेक विद्वान् हैं जो जब तक कोई पुष्ट प्रमाण प्राप्त न हो जाय इस विषय को अनिर्णीत मानते हैं तथा प्रायः तटस्थ हैं । कुछ- एक विद्वानों का कहना है कि मूलाचार एक स्वतन्त्र ग्रन्थ न होकर मात्र एक संग्रह ग्रन्थ है | डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री ने इस अनुमान का सन्तोषजनक रूप में निरसन करते हुए कहा है कि मूलाचार का ग्रन्थन एक निश्चित रूपरेखा के आधार हुआ है, अतः इसके सभी प्रकरण आपस में एक दूसरे से सम्बद्ध हैं । यदि यह संकलन होता तो उसके प्रकरणों में आद्यन्त एकरूपता एवं प्रौढ़ता का निर्वाह सम्भव नहीं था । सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री प्रभृति सभी प्रौढ़शास्त्रज्ञ विद्वानों को मूलाचार की सर्वोपरि प्रामाणिकता एवं प्राचीनता में कोई सन्देह नहीं है, और उनका कहना है कि उसे यदि स्वयं कुन्दकुन्द प्रणीत नहीं भी माना जाय, तो भी वह् कुन्दकुन्द कालीन (८ ई०पू० - ४४ ई०) अर्थात् ईसवी सन् के प्रारम्भकाल की रचना तो प्रतीत होती ही है । शिवार्यकृत 'भगवती आराधना' का भी वे प्रायः वही रचनाकाल अनुमान करते हैं । उनके अनुसार, यद्यपि भगवती आराधना एवं मूलाचार की अनेक गाथाओं में साम्य है, तथापि उससे यह मानना उचित प्रतीत नहीं होता है कि एक-दूसरे का परवर्ती है, अपितु यह मानना अधिक सम्भव होगा कि अनेक प्राचीन गाथाएँ परम्परा से अनुस्यूत चली आती थीं और उनका संकलन या उपयोग कुन्दकुन्द, वट्टकेर, शिवार्य आदि प्राचीन प्रारम्भिक ग्रन्थकारों ने अपने-अपने ढंग से किया । इस प्रसंग में यह तथ्य भी ध्यातव्य है कि कुन्दकुन्दाचार्य के ज्येष्ठ समकालीन लोहाचार्य ( १४ ई० पू० - ३० ई०) श्रुतधराचार्यों की परम्परा में अन्तिम आचारांगधारी थे । संभव है कि उन्हीं से आचारांग का ज्ञान प्राप्त करके उनके वट्टकेर नामक किसी शिष्य ने, अथवा मूलसंघाग्रणी आचार्य कुन्दकुन्द ने मूल संघाम्नाय के मुनियों के हितार्थ द्वादशांगी के उक्त प्रथम अंग का वार अधिकारों में उपसंहार करके उसे मूलाचार का रूप दिया हो । जहाँ तक टीकाकार वसुनन्दि का प्रश्न है वह अपभ्रंश भाषा में रचित सुदंसण-चरित (वि०सं० ११००, १०४३ ई०) के कर्ता नयनन्दि के प्रशिष्य और नेमिचन्द्र के शिष्य वसुनन्दि से अभिन्न प्रतीत होते हैं । अतएव उनके द्वारा मूलाचार की उक्त आचारवृत्ति की रचना ११०० ई० के लगभग हुई प्रतीत होती है। इन्हीं वसुनन्दि सैद्धान्तिक ने वसुनन्दि-श्रावकाचार के नाम से प्रसिद्ध प्राकृत भाषा में निबद्ध 'उपासकाध्ययन' की रचना की थी। मूलाचार के प्रस्तुत संस्करण में वृत्तिकार वसुनन्दि के लिए जो 'सिद्धान्तचक्रवर्ती' विशेषण प्रयुक्त किया गया है उसका औचित्य विचारणीय है—टीका की पुष्पिकाओं आदि में तो उसका कहीं कोई संकेत दृष्टिगोचर नहीं होता । मूलाचार की सकलकीर्ति कृत मूलाचार प्रदीप आदि कुछ अन्य परवर्ती टीकाएँ भी हैं और पं० जयचन्द छावड़ा कृत भाषा वचनिका भी है। किन्तु वसुनन्दिकृत आचारवृत्ति एक ६ मुलाचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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