SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०] [ मूलाचारे - शौचस्य पुरीपादिमलापहरणस्पोपति रूपकरणं' शौचोपविर्मूत्रपुरीपादिप्रक्षालननिमत्तं कुंडिकादिद्रव्यम् । ज्ञानोपधिश्व संयमोपविश्व शौचोपधिश्च ज्ञानोपधिसंयमोपधिशौचोपवयस्तेषां ज्ञानाद्युपधीनाम् । अण्णमवि - अन्यस्यापि संस्तरादिकस्य । उवह वा- उपधेर्वा उपकरणस्य संस्तरादिनिमित्तस्य उपकरणस्य प्राकृतलक्षणवलादन पळीविभक्तिद्रष्टव्या । पयदं --- प्रयत्नेनोपयोगं कृत्वा । गहणिक्खेवोग्रहणं ग्रहः निक्षेपणं निक्षेपः ग्रहश्च निक्षेपश्च ग्रह्निक्षेपौ । समिदी- समितिः । आदाणणिक्खेवाआदाननिक्षेप । ज्ञानोपधिसंयमोपधिशौचोपधीनामन्यस्य चोपधेर्यत्नेन यौ ग्रहणनिक्षेपौ प्रतिलेखनपूर्वको सा आदाननिक्षेपा समितिर्भवतीत्यर्थः ॥ पंचमसमितिस्वरूपनिरूपणायाह- एगते - एकान्ते विजने यत्रासंयतजनप्रचारो नास्ति । अच्चित्ते - हरितकाय त्रसकायादिविविक्त दग्धे - दग्धसमे स्थण्डिले । दूरे - ग्रामादिकाद्विप्रकृष्टे प्रदेशे । गूढे --संवृते जनानामचक्षुर्विषये । विसालं --- एते प्रचिते दूरे गूढे विसालमविरोहे | उच्चारादिच्चाम्रो पदिठावणिया हवे समिदी ॥१५॥ दया के निमित्त पिच्छिका आदि संयमोपधि हैं । मल आदि के दूर करने के उपकरण अर्थात् मलमूत्रादि प्रक्षालन के निमित्त कमण्डलु आदि द्रव्य शौचोपधि हैं । अन्य भी उपधि का अर्थ है संस्तर आदि उपकरण । अर्थात् घास, पाटा आदि वस्तुएँ। इन सब उपकरणों को प्रयत्नपूर्व अर्थात् उपयोग स्थिर करके सावधानीपूर्वक ग्रहण करना तथा देख शोधकर ही रखना यह आदान-निक्षेपण समिति है । यहाँ गाथा में 'उपधि' शब्द में द्वितीया विभक्ति है किन्तु प्राकृतव्याकरण के बल से यहाँ पर षष्ठी विभक्ति का अर्थ लेना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि ज्ञानोपकरण, संयमोपकरण, शौचोपकरण तथा अन्य भी उपधि ( वस्तुओं) का सावधानीपूर्वक पिच्छिका से प्रतिलेखन करके जो उठाना और धरना है वह आदान-निक्षेपण समिति है । अब पाँचवीं समिति का स्वरूप निरूपित करते हैं गाथार्थ - एकान्त, जीवजन्तु रहित, दूरस्थित, मर्यादित, विस्तीर्ण और विरोधरहित स्थान में मल-मूत्रादि का त्याग करना प्रतिष्ठापना समिति है ॥१५॥ श्राचारवृत्ति - जहाँ पर असंयतजनों का गमनागमन नहीं है ऐसे विजन स्थान को एकान्त कहते हैं । हरितकाय और त्रसकाय आदि से रहित जले हुए अथवा जले के समान ऐसे स्थण्डिल - खुले मैदान को अचित्त कहा है । * ग्राम आदि से दूर स्थान को यहाँ दूर - शब्द १. क धिः कारणं । निम्नलिखित गाथा फलटन से प्रकाशित प्रति में अधिक है जियदु व मरदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामितेण समिदस्स ॥ १८ ॥ अर्थ - जीव मरें चाहे न मरें किन्तु अयत्नाचारप्रवृत्ति वाले के निश्चित ही हिंसा होती है और समितियुक्त यत्नाचार प्रवृत्ति करनेवाले के हिंसा हो जाने मात्र से भी बन्ध नहीं होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy