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[मूलाचारे इरियासमिदी-ईर्यासमितिः । हवे-भवेत् । गमणं-गमनम् । सकार्येण युगान्तरप्रेक्षिणा संयतेन दिवसे प्रासुकमार्गेण यद्गमनं क्रियते सेर्यासमितिर्भवतीत्यर्थः । अथवा संयतस्य जन्तून् परिहरतो यद्गमनं सेर्यासमितिः।। भाषासमितेः स्वरूपनिरूपणायोत्तरसूत्रमाह
पेसुण्णहासकक्कसपणिदाप्पपसंसविकहादो।
वज्जित्ता सपरहियं भासासमिदी हवे कहणं ॥१२॥ पेसुण्ण-पिणुनस्य भाव: पैशून्य निर्दोपस्य दोपोद्भावनम् । हास-हसनं हामः हास्यकर्मोदयवशादधर्मार्थहर्पः। कवकस-कर्कशः श्रवणनिष्ठरं कामयुद्धार्थप्रवर्तकं वचनम् । पणिदा-परेषां निदा जुगुप्सा परनिंदा । परेपो तथ्यानामतथ्यानां वा दोपाणामुद्भावनं प्रति समीहा अन्यगुणासहनम् । अप्पपसंसा --आत्मनः प्रशंसा स्तवः आत्मप्रशंसा स्वगुणाविष्करणाभिप्रायः । विकहादी-विकथा आदियेंयां ते विकथादयः स्त्रीकथा, भक्तकथा, चौरकथा, राजकथादयः । एतेषां पेशन्यादीनां द्वंद्वसमामः । वज्जित्ता-- वर्जयित्वा परिहत्य। सपरहियं-स्वश्च परश्च स्वपरौ ताभ्यां हितं म्बपरहितं, आत्मनोऽन्यस्य च सुद्धकरं कर्मबंधकारणविमुक्तम् । भाषासमिदी-भापासमितिः । हवे--भवेत्। कहणं-कथनम् । पैशून्यहासकर्कशपरनिन्दात्मप्रशंसाविकथादीन वर्जयित्वा स्वपरहितं यदेतन कथनं भापासमितिर्भवतीत्यर्थः ।।
एपणासमितिस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह
तात्पर्य
कार्य के निमित्त चार हाथ आगे देखते हुए साधु के द्वारा दिवस में प्रामक मार्ग से जो गमन किया जाता है वह ईर्यासमिति कहलाती है। अथवा साध का जीवों की विराधना न करते हा जो गमन है वह ईर्यासमिति है।
अब भापा समिति का निरूपण करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं--
गाथार्थ-चुगली, हँसी, कठोरता, परनिन्दा, अपनी प्रशंसा और विकथा आदि को छोड़कर अपने और पर के लिए हितरूप वोलना भापासमिति है ॥१२॥
प्राचारवृत्ति-पिशुन--चुगली के भाव को पैशन्य कहते हैं अर्थात् निर्दोप के दोषों का उद्भावन करना, निर्दोष को दोप लगाना। हास्यकर्म के उदय से अधर्म के लिए हर्ष होना हास्य है । कान के लिए कठोर, काम और युद्ध के प्रवर्तक वचन कर्कश हैं । पर के सच्चे अथवा झठे दोपों को प्रकट करने की इच्छा का होना अथवा अन्य के गुणों को सहन नहीं कर सकना यह परनिन्दा है। अपनी प्रशंसा-स्तुति करना अर्थात् अपने गुणों को प्रकट करने का अभिप्राय रखना और स्त्रीकथा, भक्तकथा, चोरकथा और राजकथा आदि को कहना विकथादि हैं। इन चुगली आदि के वचनों को छोड़कर अपने और पर के लिए मुखकर अर्थात् कर्मवन्ध के कारणों से रहित वचन वोलना भाषासमिति है।
तात्पर्य यह है कि पैशन्य, हास्य, कर्कश, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा और विकथा आदि को छोड़कर स्व और पर के लिए हितकर जो कथन करना है वह भापासमिति है।
अब एपणासमिति के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए कहते हैं
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