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________________ मूलगुणाधिकारः] योगकेवलिसंयतान सप्ताद्यष्टपर्यन्तषण्णवमध्यसंख्यथा समेतान् सिद्धांश्चानन्तान् । सिरसा-शिरसा मस्तकेन मूर्ना । इहपरलोगहिवत्थे-इहशब्द: प्रत्यक्षवचनः, परशब्द उपरतेन्द्रियजन्मवचनः, लोकशब्दः सुरेश्वरादिवचनः । इह च परश्चेहपरौ तौ च तो लोको च इहपरलोको ताभ्यां तयोर्वा हितं सुखैश्वर्यपूजासत्कारचित्तनिवृत्तिफलादिकं तदेवार्थः प्रयोजनं फल येषां ते इहपरलोकहितार्थास्तान् इहलोकपरलोकसुखैश्वर्यादिनिमित्तान् । इहलोके पूजां सर्वजनमान्यतां गुरुतां सर्वजनमैत्रीभावादिकं च लभते मूलगुणानाचरन्, परलोके च सुरेश्वयं तीर्थकरत्वं चक्रवर्तिबलदेवादिकत्वं सर्वजनकान्ततादिकं च मूलगुणानाचरन् लभत इति । मलगुणेमूलगुणान् सर्वोत्तरगुणाधारतां गतानाचरणविशेषान् । कित्तइस्सामि-कीर्तयिष्यामि व्याख्यास्यामि । अत्र संयतशब्दस्य चत्वारोऽर्था नाम स्थापना द्रव्यं भाव इति । तत्र जातिद्रव्यगुणक्रियानिरपेक्षं संज्ञाकर्म नामसंयतः । संयतस्य गुणान् बुद्धयाध्यारोप्याकृतिवति अनाकृतिवति च वस्तुनि स एवायमिति स्थापिता मूर्तिः स्थापनासंयतः । संयतस्वरूपप्रकाशनपरिज्ञानपरिणतिसामर्थ्याध्यासितोऽनुपयुक्त आत्मा आगमद्रव्य हैं-पाप-क्रियाओं से निवृत्त हो चुके हैं वे संयत कहलाते हैं । प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म सांपराय, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवली, अयोगकेवली इसप्रकार छठवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के सभी मुनि संयत कहलाते हैं जोकि आदि में ७ और अन्त में ८ तथा मध्य से छह बार नव संख्या रखने से तीन कम नौ करोड (८६६६६६६७) होते हैं । इस संख्या सहित सभी संयतों को और अनन्त सिद्धों को सिर झुकाकर नमस्कार करके इस लोक और परलोक में हितकर मूलगुणों का वर्णन करूँगा। 'इह' शब्द प्रत्यक्ष को सूचित करने वाला है, 'पर' शब्द इन्द्रियातीत जन्म को कहने वाला है और 'लोक' शब्द देवों के ऐश्वर्य आदि का वाचक है। 'हित' शब्द से सुख, ऐश्वर्य, पूजा-सत्कार और चित्त की निवृत्ति फल आदि कहे जाते हैं और अर्थ शब्द से प्रयोजन अथवा फल विवक्षित है। इस प्रकार से इहलोक और परलोक के लिए अथवा इन उभयलोकों में सुख ऐश्वर्य आदि रूप ही है प्रयोजन जिनका, वे इहपरलोकहितार्थ कहे जाते हैं। अर्थात् ये मूलगुण इहलोक और परलोक में सुख ऐश्वर्य आदि के निमित्त हैं। इन मूलगुणों का आचरण करते हुए जीव इस लोक में पूजा, सर्वजन से मान्यता, गुरुता (बड़प्पन) और सभी जीवों से मैत्रीभाव आदि को प्राप्त करते हैं तथा इन मलगणों को धारण करते हए परलोक में देवों के ऐश्वर्य, तीर्थकरपद, चक्रवर्ती. बलदेव आदि के पद और सभी जनों में मनोज्ञता-प्रियता आदि प्राप्त करते हैं। ऐसे मूलगुण जो कि सभी उत्तरगुणों के आधारपने को प्राप्त आचरण विशेष हैं, उनका मैं व्याख्यान करूँगा। यहाँ पर संयत शब्द के चार अर्थ हैं—नाम संयत, स्थापना संयत, द्रव्य संयत और भाव संयत। उनमें से जाति, द्रव्य, गुण और क्रिया से निरपेक्ष किसी का 'संयत' यह नामकरण कर देना नाम-संयत है। आकारवान् अथवा अनाकारवान् वस्तु में 'यह वही है' ऐसा मूर्ति में संयत के गुणों का अध्यारोप करना, इस प्रकार से स्थापित मूर्ति को स्थापना-संयत कहते हैं। संयत के स्वरूप का प्रकाशक जो परिज्ञान है उसकी परिणति की सामर्थ्य से जो अधिष्ठित है किन्तु वर्तमान में उससे अनुपयुक्त है, ऐसा आत्मा आगमद्रव्य-संयत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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