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________________ श्रीवट्टकेराचार्यविरचितो मूलाचारः (श्रीवसुनंदिसिद्धान्तचक्रवर्तिविरचितया आचारवृत्त्या सहितः) मूलगुणाधिकारः श्रीमच्छुद्धेद्धबोधं सकलगुणनिधि निष्ठिताशेषकार्य ___ वक्तारं सत्प्रवृत्तेनिहतमतिमलं शकसंवंदिताघ्रिम् । भर्तारं मुक्तिवध्वा विमलसुखगतेः कारिकायाः समन्ता. दाचारस्यात्तनीतेः परमजिनकृतेनौम्यहं वृत्तिहेतोः॥ श्रुतस्कन्धाधारभूतमष्टादशपदसहस्रपरिमाणं, मूलगुणप्रत्याख्यान-संस्तर-स्तवाराधना-समयाचार[समाचार] पंचाचार-पिंडशुद्धिषडावश्यक-द्वादशानुप्रेक्षानगारभावना-समयसार-शीलगुणप्रस्तार-पर्याप्त्याद्यधिकारनिबद्धमहार्थगभीरं लक्षणसिद्धपदवाक्यवर्णोपचितं, घातिकर्मक्षयोत्पन्नकेवलज्ञानप्रबुद्धाशेषगुणपर्यायखचितषड्द्रव्यनवपदार्थजिनवरोपदिष्ट, द्वादशविधतपोनुष्ठानोत्पन्नानेकप्रकाद्धिसमन्वितगणधरदेवरचितं, मंगलाचरण-मैं वसुनन्दि आचार्य मूलकर्ता के रूप में वीतराग परम जिनदेव द्वारा प्रणीत, नीति-यति आचार का वर्णन करनेवाले आचारशास्त्र-मलाचार ग्रन्थ की टीका के निमित्त उन सिद्ध भगवान् को नमस्कार करता हूँ जो अंतरंग और बहिरंग लक्ष्मी से विशिष्ट शुद्ध और श्रेष्ठ ज्ञान को प्राप्त हैं, सकल गुणों के भण्डार हैं; जिन्होंने समस्त कार्यों को पूर्ण कर कृतकृत्य अवस्था प्राप्त कर ली है, जो सत्प्रवृत्ति-सम्यक्चारित्र के प्रवक्ता हैं, जिन्होंने अपनी बुद्धि के मल-दोष को नष्ट कर दिया है, जिनके चरणकमल इन्द्रों से वन्दित हैं और जो सर्व अंग से विमल सुख को प्राप्त करानेवाली मुक्तिरूपी स्त्री के स्वामी हैं। जो श्रतस्कन्ध का आधारभत है: अठारह हजार पदपरिमाण है; जो मलगुण, प्रत्याख्यान, संस्तर, स्तवाराधना, समयाचार, पंचाचार, पिंडशुद्धि, छह आवश्यक, बारह अनुप्रेक्षा, अनगार भावना, समयसार, शीलगुणप्रस्तार और पर्याप्ति आदि अधिकार से निबद्ध होने से महान् अर्थों से गम्भीर है; लक्षण-व्याकरण शास्त्र से सिद्ध पद, वाक्य और वर्णों से सहित है; घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए केवलज्ञान के द्वारा जिन्होंने अशेष गुणों और पर्यायों से खचित छह द्रव्य और नव पदार्थों को जान लिया है ऐसे जिनेन्द्रदेव के द्वारा जो उपदिष्ट है; बारह प्रकार के तपों के अनुष्ठान से उत्पन्न हुई अनेक प्रकार की ऋद्धियों से समन्वित गणधर देव के द्वारा जो रचित है; जो मूलगुणों और उत्तरगुणों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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