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आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी
न्यायप्रभाकर, सिद्धान्तवाचस्पति, आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी दिगम्बर जैन समाज में एक चिन्तक विदुषी साध्वी तो हैं ही, एक सुख्यात लेखिका भी हैं। आपका जन्म टिकैतनगर, जिला बाराबंकी (उ.प्र.) में विक्रम संवत् १६६१ में हुआ । १७ वर्ष की अल्पायु में ही आपने बाल-ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर आचार्यश्री देशभूषणजी महाराज से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की थी। पश्चात्, वैशाख कृष्णा 2, वि. सं. २०१३ को चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज के पट्टाधीश आचार्यश्री वीरसागरजी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण की।
यथा नाम तथा गुणों से वेष्टित, ज्ञान और आचरण की साकार मूर्ति श्री ज्ञानमती माता जी ने संस्कृत एवं प्राकृत भाषा के अनेक ग्रन्थों की टीकाएँ एवं मौलिक लेखक-कार्य किया है। मुनिधर्म की व्याख्या करने वाले सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ 'मूलाचार', न्याय के अद्वितीय ग्रन्थ 'अष्टसहस्री', अध्यात्मग्रन्थ 'नियमसार' तथा 'कातन्त्र-व्याकरण' की हिन्दी टीकाओं के अतिरिक्त जैन ज्योतिर्लोक, जम्बूद्वीप, दिगम्बर मुनि, जैन भारती, नियमसार (पद्यावली), दस धर्म, प्रवचन- निर्देशिका आदि रचनाएँ आपकी प्रमुख उपलब्धियाँ हैं । इनके अतिरिक्त चारित्रिक उत्थान को ध्यान में रखकर माताजी ने सरल सुबोध शैली में नाटक, कथाएँ तथा बालोपयोगी अनेक कृतियों की रचना की है।
साहित्य-सेवा के अतिरिक्त आपकी प्रेरणा से अनेक ऐतिहासिक महत्त्व के कार्य सम्पन्न हुए हैं, हो रहे हैं। हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप-रचना, आचार्यश्री वीरसागर संस्कृत विद्यापीठ की स्थापना, 'सम्यग्ज्ञान' हिन्दी पत्रिका का प्रकाशन, समग्र भारत में जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति का प्रवर्तन आदि इस बात के साक्षी हैं।
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