SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 555
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षडावश्यकाधिकारः] [४६७ गमहेतव एवेति, अथ वा आवासयन्तु इति प्रश्नवचनं, आवश्यकानि सम्पूर्णानि कथंभूतस्य पुरुषस्य भवन्तीति प्रश्ने तत आह–सर्वेषु चापरिहोणेषु मनोवचनकायगुप्तेन्द्रियास्यावश्यकानि भवन्तीति निर्देशः कृत इति ।।६८७।। आवश्यककरणविधानमाह तियरण सव्वविसुद्धो दव्वे खेत्ते यथुत्तकाल ह्मि । मोणेणव्वाखित्तो कुज्जा आवासया णिच्चं ॥६८८॥ विकरणमनोवचनकायः सर्वथा शुद्धो द्रव्यविषये क्षेत्रविषये यथोक्तकाले आवश्यकानि नित्यं मौनेनाव्याक्षिप्तः सन् कुर्याद्यतिरिति ॥६८८।। अथासिकानिषिद्यकयो: किलक्षणमित्याशंकायामाह जो होदि णिसीदप्पा णिसीहिया तस्स भावदो होदि । अणि सिद्धस्स णिसीहियसबो हवदि केवलं तस्स ॥६८६॥ यो भवति निसितो बद्ध आत्मपरिणामो येनासौ निसितात्मा निगृहीतेन्द्रियकषायचित्तादिपरिणा हैं वे आवासक अर्थात् कर्मागमन के हेतु ही हैं । अर्थात् न्यून आवश्यकों से कर्मों का आश्रव होता है-पूर्ण निर्जरा नहीं हो पाती है। अथवा 'आवासयंतु' यह प्रश्नवचन है। वह इस तरह है कि ये आवश्यक सम्पूर्ण कैसे पुरुष के होते हैं ? जो सम्पूर्ण रूप से न्यूनता रहित हैं, जो मनवचनकाय से इन्द्रियों को वश में रखने वाले हैं उनके ही ये आवश्यक परिपूर्ण होते हैं ऐसा निर्देश है । अथवा जिसने परिपूर्ण आवश्यकों का पालन किया है उस साधु के ही मन-वचन-कायपूर्वक इन्द्रियाँ वशीभूत हो पाती हैं। आवश्यक करने की विधि बताते हैं गाथार्थ-मन-वचन-काय से सर्वविशुद्ध हो द्रव्य, क्षेत्र में और आगमकथित काल में मौनपूर्वक निराकुलचित्त होकर नित्य ही आवश्यकों को करे ॥६८८॥ आचारवृत्ति-मन-वचन-काय से सर्वथा शुद्ध हुए मुनि द्रव्य के विषय में, क्षेत्र के विषय में तथा आगम में कहे गए काल में निराकुलचित्त होकर नित्य ही मौनपूर्वक आवश्यक क्रियाओं का अनुष्ठान करें। अब आसिका और निषिद्यका का क्या लक्षण है ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं गाथार्थ-जो नियमित आत्मा है उसके भाव से निषिद्यका होती है । जो अनियंत्रित है उसके निषिद्यका शब्द मात्र होता है ॥६८६।। प्राचारवृत्ति-जिसने अपनी आत्मा के परिणाम को बांधा हुआ है वह निसितात्मा है अर्थात् इन्द्रिय, कषाय और चित्त आदि परिणाम का निग्रह किया हुआ है। अथवा निषिद्धात्मा-सर्वथा जिनकी नियमित–नियत्रित मति है ऐसे मुनि निषिद्धात्मा हैं। ऐसे मुनि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy