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________________ ariarierfunre: जो पुण तीसदिवरिसो सत्तरिवरिसेण पारणाय समो । विसमो य कूडवादी णिव्विण्णाणी य सोय जडो ॥ ६७४ || यः पुनस्त्रिंशद्वर्ष प्रमाणो यौवनस्थः शक्तः सप्ततिसंवत्सरेण सप्ततिसंवत्सरायुःप्रमाणेन वृद्धेन निःशक्तिकेन पारणेनानुष्ठानेन कायोत्सर्गादिसमाप्त्या समः सदृशशक्तिको निःशक्तिकेन सह यः स्पद्धी करोति सः साधुविषमश्च शान्तरूपो न भवति कूटवादी मायाप्रपंचतत्परो निर्विज्ञानी विज्ञानरहितश्चारित्रमुक्तश्च जश्च मूर्खो, न तस्येलोको नाऽपि परलोक इति ॥ ६७४ ॥ कायोत्सर्गस्य भेदानाह दिदि उट्टिणिविट्ठ उवविउट्ठिदो चेव । afaणविट्टोव य का प्रोग्गो चट्ठाणो ॥ ६७५॥ [४८ उत्थितश्चासावुत्थितश्चोत्थितोत्थितो मह्तोऽपि महान्, तोत्थित निविष्टः पूर्वमुत्थितः पश्चान्निविष्ट उत्थितनिविष्टः, कायोत्सर्गेण स्थितोप्यसावासीनो द्रष्टव्यः । उत्थितः, उपविष्टो भूत्वा स्थितो आसीनोऽप्यसौ कायोत्सर्गस्थश्चैव । तथोपविष्टो' ऽपि चासावासीनः । एवं कायोत्सर्गः चत्वारि स्थानानि यस्यासी गाथार्थ - जो साधु तीस वर्ष की वय वाला है पुनः सत्तर वर्ष वाले के कायोत्सर्ग से समानता करता है वह विषम है, कूटवादी, अज्ञानी और मूढ़ है || ६७४॥ आचारवृत्ति-जो मुनि तीस वर्ष की उम्रवाला है - युवावस्था में स्थित है, शक्तिमान है फिर भी यदि वह सत्तर वर्ष की आयु वाले वृद्ध ऐसे अशक्त मुनि के कायोत्सर्ग आदि समाप्ति रूप अनुष्ठान के साथ बराबरी करता है अर्थात् आप शक्तिमान होकर भी अशक्त के साथ स्पर्द्धा करता है वह साधु विषम - शान्तरूप नहीं है, माया प्रपंच में तत्पर है, निविज्ञानी – विज्ञान रहित और चारित्ररहित है तथा मूर्ख है । न उसका इहलोक ही सुधरता है और परलोक ही सुधरता है । अर्थात् अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार कायोत्सर्ग आदि क्रियाओं का अनुष्ठान करना चाहिए। वृद्धावस्था में शक्ति के ह्रास हो जाने से स्थिरता कम हो जाती है किन्तु युवावस्था में प्रत्येक अनुष्ठान विशेष और अधिक हो सकते हैं । Jain Education International कायोत्सर्ग के भेदों को कहते हैं- गाथार्थ --- उत्थितोत्थित, उत्थितनिविष्ट, उपविष्टोत्थित और उपविष्टनिविष्ट ऐसे चार भेदरूप कायोत्सर्ग होता है ||६७५ || प्राचारवृत्ति - उत्थितोत्थित- दोनों प्रकार से खड़े होकर जो कायोत्सर्ग होता है। अर्थात् जिसमें शरीर से भी खड़े हुए हैं और परिणाम भी धर्म या शुक्ल ध्यान रूप हैं यह कायोत्सर्ग महान् से भी महान् है । पूर्व में उत्थित और पश्चात् निविष्ट अर्थात् कायोत्सर्ग में शरीर से तो खड़े हैं फिर भी भावों से बैठे हुए हैं अर्थात् आर्त या रौद्रध्यान रूप भाव कर रहे हैं, इनका कायोत्सर्ग उत्थित - निविष्ट कहलाता है । जो बैठे हुए भी खड़े हुए हैं अर्थात् बैठकर पद्मासन से कायोत्सर्ग करते हुए भी जिनके परिणाम उज्ज्वल हैं उनका वह कायोत्सर्ग उप१ क विष्टनिविष्टोऽपि चासावासीनादप्यासीनः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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