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________________ समयकाधिकारः] [४६५ भूतः एवं साधुरपि यदि एकस्मिन्प्रतिक्रमणदण्डके स्थिरमना न भवति अन्यस्मिन् भविष्यति अन्यस्मिन् वा न 'भवत्यन्यस्मिन भविष्यतीति सर्वदण्डकोच्चारणं न्याय्यमिति, न चात्र विरोधः, सर्वेपि कर्मक्षयकरणसमर्था यतः इति ॥६३२॥ प्रतिक्रमणनियुक्तिमुपसंहरन् प्रत्याख्याननियुक्ति प्रपंचयन्नाह पडिकमणणिजुत्ती पुण एसा कहिया मए समासेण। पच्चक्खाणणिजुत्तो एतो उड्ढं पवक्खामि ॥६३३॥ प्रतिक्रमणनियुक्तिरेषा कथिता मया समासेन पुनः प्रत्याख्याननियुक्तिमित ऊर्ध्व प्रवक्ष्यामीति । तामेव प्रतिज्ञां निर्वहन्नाह णामढवणा दग्वे खेत्ते काले य होदि भावे य। एसो पच्चक्खाणे णिक्खेवो छठिवहो णेप्रो॥६३४॥ अयोग्यानि नामानि पापहेतूनि विरोधकारणानि न कर्तव्यानि न कारयितव्यानि नानुमंतव्यानीति आँख खुल गई। वैसे ही साधु भी यदि एक प्रतिक्रमण दण्डक में स्थिरचित्त नहीं होता तो अन्य दण्डक में हो जावेगा, अथवा यदि अन्य दण्डक में भी स्थिरमना नहीं होगा तो अन्य किसी दण्डक में स्थिरचित्त हो जावेगा, इसलिए सर्वदण्डकों का उच्चारण करना न्याय ही है, और इसमें विरोध भी नहीं है क्योंकि प्रतिक्रमण के सभी दण्डक सूत्र कर्मक्षय करने में समर्थ हैं। भावार्थ-ऋषभदेव और वीरप्रभु के शासन के मूनि देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक आदि समयों में आगम विहित पूरे प्रतिक्रमण को पढ़ते हैं। उस प्रतिक्रमण में सभी प्रकार के निराकरण करने वाले सूत्र आते हैं । इन साधुओं को चाहे एक व्रत में अतीचार लगे, चाहे दो चार आदि में लगे, चाहे कदाचित् किसी व्रत में अतीचार न भी लगे अर्थात् किंचित् दोष न भी हो तो भी जिनेन्द्रदेव की आज्ञा के अनुसार यथोक्तकाल में वे प्रतिक्रमण विधि करें ही करें ऐसा आदेश है चूंकि वे विस्मरणशील चंचलचित्त और सरल जड़ या जड़ कुटिल तथा अज्ञानबहुल होते हैं। यही बात ऊपर बताई गई है। अतः प्रमाद छोड़कर विधिवत् सर्व प्रतिक्रमणों को करते रहना चाहिए। तथा उनके अर्थ को समझते हए अपनी निन्दा गर्दा आदि के द्वारा उन दोषों से उपरत होना चाहिए। प्रतिक्रमण नियुक्ति का उपसंहार करते हुए प्रत्याख्यान नियुक्ति को कहते हैं गाथार्थ-मैंने संक्षेप से यह प्रतिक्रमण नियुक्ति कही है। इसके आगे प्रत्याख्यान नियुक्ति को कहूँगा ॥६३३॥ प्राचारवृत्ति-गाथा सरल है। उसी प्रतिज्ञा का निर्वाह करते हुए कहते हैं गाथार्थ-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप प्रत्याख्यान में छह प्रकार का निक्षेप जानना चाहिए ॥६३४॥ प्राचारवृत्ति-अयोग्य नाम पाप के हेतु हैं और विरोध के कारण हैं ऐसे नाम न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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