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________________ पडावश्यकाधिकारः] [४६३ अपराधो भवतु मा वा, मध्यमानां पुजिनवराणामजितादिपार्श्वनाथपर्यन्तानामपराधे सति प्रतिक्रमणं तेषां यतोऽपराधबाहुल्याभावादिति ॥६२८।। जावेदु अप्पणो वा अण्णदरे वा भवे अदीचारो। तावेदु पडिक्कमणं मज्छिमयाणं जिणवराणं ॥६२६॥ यस्मिन् व्रत आत्मनोऽन्यस्य वा भवेदतीचारस्तस्मिन विषये भवेत्प्रतिक्रमणं मध्यमजिनवराणामाद्यपश्चिमयो: पूनस्तीर्थकरयोरेकस्मिन्नपराधे सर्वान् प्रतिक्रमणदण्डकान भणति ॥६२६।। इत्याह दरियागोयरसमिणादिसम्वमाचरदमा व आचरद । पुरिम चरिमादु सव्वे सव्वं णियमा पडिक्कमदि ॥६३०॥ ईर्यागोचरस्वप्नादिभवं सर्वमतीचारमाचरतु मा वाऽचरतु पूर्वे ऋषभनाथशिष्याश्चरमा वर्द्धमानशिष्याः सर्वे सर्वान्नियमान् प्रतिक्रमणदण्डकान् प्रतिक्रमन्त उच्चारयन्ति ॥६३०॥ किमित्याद्याः पश्चिमाश्च सर्वान्नियमादुच्चारयंति किमित्यजितादिपार्श्वनाथपर्यन्तशिष्या नोच्चारयन्ति इत्याशंकायामाह चाहिए। किन्तु अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथपर्यंत मध्य के बाईस तीर्थंकरों का धर्म, अपराध के होने पर ही प्रतिक्रमण करने रूप है, क्योंकि उनके शिष्यों में अपराध की बहुलता का अभाव है। गाथार्थ-जिस व्रत में अपने को या अन्य किसी को अतीचार होवें, मध्यम जिनवरों के काल में उसका ही प्रतिक्रमण करना होता है ।।६२६॥ आचारवृत्ति --जित व्रत में अपने को या अन्य किसी साधु को अतीचार लगता है उसी विषय में प्रतिक्रमण होता है ऐसा मध्यम के बाईस तीर्थंकरों के शासन का नियम था किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के शासनकाल में पुनः एक अपराध के होने पर प्रतिक्रमण के सभी दण्डकों को बोलना होता है। ___ इसी बात को कहते हैं गाथार्थ-ईर्यापथ सम्बन्धी, आहार सम्बन्धी, स्वप्न आदि सम्बन्धी सभी दोष करें या न करें किन्तु पूर्व और चरम अर्थात् आद्यन्त तीर्थंकरों के काल में सभी साधु सभी दोषों का नियम से प्रतिक्रमण करते हैं ॥६३०॥ आचारवृत्ति-ईर्यापथ, गोचरी, स्वप्न इत्यादि में अतीचार होवें या न होवें, किन्तु ऋषभनाथ के शिष्य और वर्धमान भगवान् के सभी शिष्य सभी प्रतिक्रमण दंडकों का उच्चारण करते हैं। आदि और अन्तिम तीर्थंकर के शिष्य किसलिए सर्व प्रतिक्रमण दण्डकों का उच्चारण करते हैं ? और अजितनाथ से लेकर पार्श्वनाथपर्यंत के शिष्य क्यों नहीं सभी का उच्चारण करते हैं ? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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