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________________ गायकाधिकारः] [४६१ यद्रव्यमाश्रित्य येन भावेन तेनैव क्रमेण कौटिल्यं परित्यज्य निहन्तव्या परिशोध्या यस्मादालोचने गुरवे दोषनिवेदने निंदने परेष्वाविष्करणे गर्हणे आत्मजुगुप्सने कर्तव्ये पुद्वितीयं पुनर्न करिष्यामीत्यथवा न पुनस्तृतीयं दिनं द्वितीयं वा द्वितीयदिवसे तृतीयदिवसे आलोचयिष्यामीति न चितनीयं यस्मादगतमपि कालं न जानंतीति भावार्थस्तस्माच्छीघ्रमालोचयितव्यमिति ॥६२४॥ यस्मात् पालोचणिदणगरहणाहिं अभुट्टिनो प्रकरणाए। तं भावपडिक्कमणं सेसं पुणदव्वदो भणिग्नं ॥६२५॥ गुरवेऽपराधनिवेदनमालोचनं वचनेनात्मजूगुप्सनं परेभ्यो निवेदनं च निन्दा चित्तेनात्मनो जुगुप्सनं शासनविराधनभयं च गर्हणतः क्रियायां प्रतिक्रमणेऽथवा पुनरतीचाराकरणेऽभ्युत्थित उद्यतो यतस्तस्माद्भावप्रतिक्रमणं परमार्थभूतो दोषपरिहारः शेषं पुनरेवमन्तरेण द्रव्यतोऽपरमार्थरूपं भणितमिति ॥२२॥ द्रव्यप्रतिक्रमणे दोषमाह भावेण अणुवजुत्तो दव्वीभूदो पडिक्कमदि जो दु। जस्सटें पडिकमदे तं पुण अठंण साधेदि ॥६२६॥ उनको दूर करना चाहिए । अर्थात् जिस काल में,जिस क्षेत्र में,जिस द्रव्य का आश्रय लेकर और जिस भाव से व्रतों में अतीचार उत्पन्न हुए हैं,मायाचारी को छोड़कर उसी क्रम से उनका परिशोधन करना चाहिए। गुरु के सामने दोषों का निवेदन करना आलोचना है, पर के सामने दोषों को प्रकट करना निन्दा है और अपनी निन्दा करना गर्दा है । इन आलोचना, निन्दा और गर्दा के करने में 'मैं दूसरे दिन आलोचना करूँगा अथवा तीसरे दिन कर लूंगा' इस तरह से नहीं सोचना चाहिए। क्योंकि बीतता हुआ काल जानने में नहीं आता है ऐसा अभिप्राय है। इसलिए शीघ्र ही आलोचना कर लेनी चाहिए। भाव और द्रव्य प्रतिक्रमण को कहते हैं गाथार्थ-आलोचना, निन्दा और गर्दा के द्वारा जो प्रतिक्रमण क्रिया में उद्यत हुआ, उसका वह भाव प्रतिक्रमण है । पुनः शेष प्रतिक्रमण द्रव्य से कहा गया है ॥६२५॥ प्राचारवृत्ति-गुरु के सामने अपराध का निवेदन करना आलोचना है, वचनों से अपनी जुगुप्सा करना और पर के सामने निवेदन करना निन्दा है तथा मन से अपनी जुगुप्सा -तिरस्कार करना और शासन की विराधना का भय रखना गर्दा है । इनके द्वारा प्रतिक्रमण करने में अथवा पुनः अतीचारों के नहीं करने में जो उद्यत होता है उसके वह भाव प्रतिक्रमण होता है जोकि परमार्थभूत दोषों के परिहाररूप है। शेष पुनः इन आलोचना आदि के बिना जो प्रतिक्रमण है वह द्रव्य प्रतिक्रमण है । वह अपरमार्थ रूप कहा गया है। द्रव्य प्रतिक्रमण में दोष को कहते हैं गाथार्थ—जो भाव से उपयुक्त न होता हुआ द्रव्यरूप प्रतिक्रमण करता है, वह जिस लिए प्रतिक्रमण करता है उस प्रयोजन को सिद्ध नहीं कर पाता है ॥६२६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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