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________________ षडावश्यकाधिकारः] [४७ कृत्वा शयित्वा वा यो विदधाति वन्दनां तस्य दोलायितदोषः अंकुसियं अंकुशितमंकुशमिव करांगुष्ठं ललाटदेशे कृत्वा यो वन्दनां करोति तस्यांकुशितदोषः, तथा कच्छरिंगियं कच्छपरिगितं चेष्टितं कटिभागेन कृत्वा यो विदधाति वन्दनां तस्य कच्छपरिगितदोषः ॥६०५।। तथा मत्स्योद्वतः पार्श्वद्वयेन वन्दनाकारणमथवा मत्स्यस्य इव कटिभागेनोद्वत्तं कृत्वा यो वंदनां विदधाति तस्य मत्स्योद्वर्त्तदोषः,मनसाचार्यादीनां दुष्टो भूत्वा यो वंदनां करोति तस्य मनोदुष्टदोषः । संक्लेशयुक्तेन मनसा यद्वा वंदनाकरणं, वेदियावद्धमेव य वेदिकाबद्ध एव च वेदिकाकारेण हस्ताभ्यां बंधो हस्तपंजरेण वामदक्षिणस्तनप्रदेशं प्रपीड्य जानुद्वयं वा प्रबद्ध्य वंदनाकरणं वेदिकाबद्धदोषः, भयसा चेव भयेन चैव मरणादिभीतस्य भयसंत्रस्तस्य यद्वन्दनाकारणं भयदोषः भयतो बिभ्यतो गुर्वादिभ्यतोबिभ्यतो भयं प्राप्नुवत: परमार्थात्परस्य वालस्वरूपस्य वंदनाभिधानं विभ्यद्दोषः, इड्डिगरिव ऋद्धिगौरवं वंदनामकुर्वतो महापरिक रश्चातुर्वर्ण्यश्रमणसंघो ८. मत्स्योद्वर्त-दो पसवाड़ों से वन्दना करना अथवा मत्स्य के समान कटिभाग को ऊपर उठाकर (या पलटकर) जो वन्दना करता है उसके मत्स्योद्वर्त दोष होता है। ६. मनोदुष्ट-मन से आचार्य आदि के प्रति द्वेष धारण करके जो वन्दना करता है अथवा संक्लेशयुक्त मन से जो वन्दना करता है उसके मनोदुष्ट नाम का दोष होता है। १०, वेदिकाबद्ध-वेदिका के आकार रूप से दोनों हाथों को बाँधकर हाथ पंजर से वाम-दक्षिण स्तन प्रदेश को पीडित करके या दोनों घुटनों को बाँध करके वन्दना करना वेदिकाबद्ध दोष है। ११. भय-भय से अर्थात् मरण आदि से भयभीत होकर या भय से घबड़ाकर नन्दना करना, भय दोष है। १२. विभ्यस्व-गुरु आदि से डरते हुए या परमार्थ से परे बालकस्वरूप परमार्थ के ज्ञान से शून्य अज्ञानी हुए वन्दना करना बिभ्यत् दोष है। १३. ऋद्धिगौरव-वन्दना को करने से महापरिकर वाला चातुर्वर्ण्य श्रमण संघ मेरा भक्त हो जावेगा इस अभिप्राय से जो वन्दना करता है उसके ऋद्धिगौरव दोष होता है। १४. गौरव-अपना माहात्म्य आसन आदि के द्वारा प्रगट करके या रस के सुख के लिए जो वन्दना करता है उसके गौरव नाम का दोष होता है । १५. स्तेनित—जिस प्रकार से गुरु आदि न जान सकें ऐसी चोर बुद्धि से या कोठरी में प्रवेश करके वन्दना करना या अन्य जनों से आँखें चुराकर अर्थात् नहीं देख सकें ऐसे स्थान में वन्दना करना सो स्तेनित दोष है . १६. प्रतिनीत-गुरु आदि के प्रतिकूल होकर जो वन्दना करता है उसके प्रतिनीत दोष होता है। . १७. प्रदुष्ट-अन्य के साथ प्रद्वेष-वैर कलह आदि करके पुनः उनसे क्षमाभाव न - कराकर जो क्रियाकलाप करता है उसके प्रदुष्ट दोष होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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