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________________ ४४४ [मूलाचारे शिरःकरणं तथा चतुर्विशतिस्तवस्यादावंते च करमुकुलांकितशिरःकरणमेवं चत्वारि शिरांसि भवंति, त्रिशुद्ध मनोवचनकायशुद्ध क्रियाकर्म प्रयुक्ते करोति । द्वे अवनती यस्मिन्तत् द्वयवनति क्रियाकर्म द्वादशादर्ताः यस्मिस्तत् द्वादशावर्त्त, मनोवचनकायशुद्धया चत्वारि शिरांसि यस्मिन् तत चतुःशिरःक्रियाकर्मैव विशिष्टं यथाजातं क्रियाकर्म प्रचंजीलेति ॥६.३।। पुनरपि क्रियाकर्मप्रयुंजनविधानमाह तिविहं तियरणसुद्धमयरहियं दुविहठाण पुणरुत्तं । विणएण कमविसुद्ध किदियम्मं होदि कायव्वं ॥६०४॥ त्रिविधं ग्रंथार्थोभयभेदेन त्रिप्रकारं, अथवाऽवनतिद्वयमेकः प्रकारः द्वादशावतः द्वितीय: प्रकारश्चतु:शिरस्तुतीयं विधानमेवं त्रिविधं, अथवा कृतकारितानुमतिभेदेन विविधं, अथवा प्रतिक्रमणस्वाध्यायवन्दनाभेदेन त्रिविधं, अथवा पंचनमस्कारध्यानचतुर्विंशतिस्तवभेदेन त्रिविधमिति। त्रिकरणशुद्ध मनोवचनकायाशुभ आवत नात्मक नमस्कार करें। इस तरह प्रतिज्ञा के अनन्तर और कायोत्सर्ग के अनन्तर ऐसे दो बार अवनति हो गयीं। बाद में तीन आवर्त, एक शिरोनति करके 'थोस्सामि स्तव' पढ़कर अन्त में पुनः तीन तं, एक शिरोनति करें। इस तरह चतविशति स्तव के आदि और अन्त में तीन-तीन आवर्त और एक-एक शिरोनति करने से छह आवर्त और दो शिरोनति हो गयीं । ये सामायिक स्तव सम्बन्धी छह आवर्त, दो शिरोनति तथा चतुर्विंशतिस्तव सम्बन्धी छह आवर्त, दो शिरोनति मिलकर बारह आवर्त और चार शिरोनति हो गयीं। इस तरह एक कायोत्सर्ग के करने में दो प्रणाम, बारह आवर्त और चार शिरोनति होती हैं। जुड़ी हुई अंजुलि को दाहिनी तरफ से घुमाना सो आवर्त का लक्षण ह यहाँ पर टीका कार ने मन वचन काय की शभप्रवत्ति का करना आवर्त कहा है जोकि उस क्रिया के करने में होना ही चाहिए। इतनी क्रियारूप कृतिकर्म को करके 'जयतु भगवान् इत्यादि चैत्यभक्ति का पाठ पढ़ना चाहिए। ऐसे ही जो भी भक्ति जिस क्रिया में करना होती है तो यही विधि की जाती है। पुनरपि क्रियाकर्म की प्रयोगविधि बताते हैं-- गाथार्थ--अवनति, आवर्त और शिरोनति ये तीन विध, मनवचनकाय से शुद्ध, मदरहित, पर्यंक और कायोत्सर्ग इन दो स्थान युक्त, पुनरुक्ति युक्त विनय से क्रमानुसार कृतिशर्म करना होता है ।।६०४॥ आचारवृत्ति-त्रिविध-ग्रंथ, अर्थ और उभय के भेद से तीन प्रकार, अथवा दो अवनति यह एक प्रकार, बारह आवर्त यह दो प्रकार, चार शिर यह तृतीय प्रकार, ऐसे तीन प्रकार, अथवा कृत, कारित, अनुमोदना के भेद से तीन प्रकार, अथवा प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और वन्दना के भेद से तीन प्रकार, अथवा पंचनमस्कार, ध्यान और चतुर्विंशतिस्तव अर्थात् सामा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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