SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 500
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४२ ]. [मूलाबारे प्रधानपदोच्चारणं कृतं यतः पूर्वाह्णे दिवस इति एवमपराह्णे रात्रावपि द्रष्टव्यं भेदाभावात् अथवा पश्चिमरात्रौ प्रतिक्रमणे क्रियाकर्माणि चत्वारि स्वाध्याये श्रीणि वंदनायां द्वे, सवितर्युदिते स्वाध्याये त्रीणि मध्याह्नवंदनायां द्वे एवं पूर्वाह्न क्रियाकर्माणि चतुर्दश भवन्ति तथाऽपराह्नवेलायां स्वाध्याये त्रीणि क्रियाकर्माणि प्रतिक्रमणे चत्वारि वंदनायां द्वे योगभक्तिग्रहणोपसंहारकालयोः द्वे रात्रौ प्रथमस्वाध्याये त्राणि । एवमपराक्रियाकर्माणि चतुर्दश भवंति प्रतिक्रमणस्वाध्यायकालयोरुपलक्षणत्वादिति, अन्यान्यपि क्रिया । कर्माण्यत्रैवान्तर्भवन्ति नाव्यापकत्वमिति संबन्धः । पूर्वाह्नसमीप काल: पूर्वाह्न इत्युच्यतेऽपरात्समीपकालोऽपरा इत्युच्यते तस्मान्न दोप इति ॥ ६०२ || कत्यवनतिकरणमित्यादि यत्पृष्टं तदर्थमाह दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव य । चस्सिरं तिसुद्धां च किदियम्सं पउंजदे ||६०३॥ अपराह्न कहने से रात्रि का भी ग्रहण हो जाता है, क्योंकि पूर्वाह्न से दिवस में और अपराह्न से रात्रि में कोई भेद नहीं है । अथवा पश्चिम रात्रि के प्रतिक्रमण में क्रियाकर्म चार, स्वाध्याय में तीन और वन्दना में दो, सूर्य उदय होने के बाद स्वाध्याय के तीन, मध्याह्न वन्दना के दो इस प्रकार से पूर्वाह सम्बच्धी क्रियाकर्म चौदह होते हैं । तथा अपराह्न बेला में स्वाध्याय में तीन क्रियाकर्म, प्रतिक्रमण में चार, वन्दना में दो, योगभक्ति ग्रहण और उपसंहार में दो एवं रात्रि में प्रथम स्वाध्याय के तीन इस तरह अपराह्न सम्बन्धो क्रियाकर्म चौदह होते हैं । गाथा में प्रतिक्रमण और स्वाध्याय काल उपलक्षण रूप हैं इससे अन्य भी क्रियाकर्म इन्हीं में अन्तर्भूत हो जाते हैं । अतः अव्यापक दोष नहीं आता है । चूंकि पूर्वाह्न के समीप का काल पूर्वाह्न कहलाता है और अपराह्न के समीप का काल अपराह्न कहलाता है इसलिए कोई दोष नहीं है । भावार्थ-मुनि के अहोरात्र सम्बन्धी अट्ठाईस कायोत्सर्ग कहे गये हैं । उन्हीं का यहाँ वर्णन किया गया है । यथा दैवसिक-रात्रिक इन दो प्रतिक्रमण सम्बन्धी कायोत्सर्ग ८, त्रिकालदेव वन्दना सम्बन्धी ६, पूर्वाह्न, अपराह्न तथा पूर्वरात्रि और अपररात्रि इन चार काल में तीन बार स्वाध्याय सम्बन्धी १२, रात्रियोग ग्रहण और विसर्जन इन दो समयों में दो बार योगभक्ति सम्बन्धी २, कुल मिलाकर २८ होते हैं । अन्यत्र ग्रन्थों में भी इनका उल्लेख है यथा स्वाध्याये द्वादशेष्टा षड्वन्दनेऽष्टौ प्रतिक्रमे । कायोत्सर्गा योगभक्तौ द्वौ चाहोरात्रगोचराः ॥७५॥ १ अर्थ - स्वाध्याय के बारह, वन्दना के छह, प्रतिक्रमण के आठ और योगभक्ति के दो ऐसे अहोरात्र सम्बन्धी अट्ठाईस कायोत्सर्ग होते हैं । Jain Education International 'कितनी अवनति करना ?' इत्यादि रूप जो प्रश्न हुए थे उन्हीं का उत्तर देते हैंगाथार्थ - जातरूप सदृश दो अवनति, बारह आवर्त, चार शिरोनति और तीन शुद्धि सहित कृतिकर्म का प्रयोग करें ||६०३ ॥ १ अनगारधर्मामृत अ. ८, पृ० ५६७ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy