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केन विधानेन स्थितो वंद्यत इत्याशकायामाह
आसणे आसणत्थं च उवसत उवट्ठिदं ।
अणु विण्णय मेधावो किदियम्म पउंजदे ॥६००॥
आसने विविक्तभप्रदेशे आसनस्थं पयकादिना व्यवस्थितं अथवा आसने आसनस्थमव्याक्षिप्तमपराङ्मखमपशांतं स्वस्थचित्तं उपस्थितं वंदनां कुर्वीत इति स्थित अनुविज्ञाप्य वदना करोमीति सबोध्य मेधावी प्राज्ञोऽनेन विधानेन कृतिकर्म प्रारभेत प्रयुंजीत विदधीतेत्यर्थः ॥६००॥
कथमिव गतं सूत्रं वंदनाया: स्थानमित्याह
पालोयणाय करणे पडिपुच्छा पूयणे य सज्झाए।
अवराहे य गुरूणं वंदणमेदेसु ठाणेसु॥६०१॥
आलोचनाया: करणे आलोचनाकालेऽथवा करणे पडावश्यककाले परिप्रश्ने प्रश्नकाले पूजने पूजाकाले च स्वाध्याये स्वाध्यायकालेऽपराधे क्रोधाद्यपराधकाले च गुरूणामाचार्योपाध्यायादीनां वंदनतेषु स्थानेषु कर्तव्येति ॥६०१॥
भावार्थ-यह प्रकरण मुख्यतया साधु के लिए है अतः आहार करते समय श्रावक यदि उन्हें आहार देने आते हैं तो 'नमोस्तु' करके ही आहार देते हैं।
किस विधान से स्थित हों तो वन्दना करे ? सो ही बताते हैं
गाथार्थ-जो आसन पर बैठे हुए हैं, शांतचित्त हैं एवं सन्मुख मुख किए हुए हैं उनकी अनुज्ञा लेकर विद्वान् मुनि वन्दना विधि का प्रयोग करे ॥६००।
आचारवृत्ति- एकांत भूमिप्रदेश में जो पर्यंक आदि आसन से बैठे हुए हैं अथवा आसन-पाटे आदि पर बैठे हुए हैं, जो शांत-निराकुल चित्त हैं, अपनी तरफ मुख करके बैठे हुए हैं, स्वस्थ चित्त हैं, उनके पास आकर-'हे भगवन् ! मैं वन्दना करूँगा' ऐसा सम्बोधन करके विद्वान् मुनि इस विधि से कृतिकर्म-विधिपूर्वक वन्दना प्रारम्भ करे। इस प्रकार से वन्दना किनकी करना और कैसे करना इन दो प्रश्नों का उत्तर हो चुका है।
अब वन्दना कब करना सो बताते हैं--
गाथार्थ-आलोचना के करने में, प्रश्न पूछने में, पूजा करने में, स्वाध्याय के प्रारम्भ में और अपराध के हो जाने पर इन स्थानों में गुरुओं की वन्दना करे ॥६०१॥
प्राचारवृत्ति-आलोचना के समय, करण अर्थात् छह आवश्यक क्रियाओं के समय प्रश्न करने के समय, पूजन के समय, स्वाध्याय के समय और अपने से क्रोधादि रूप किसी अपराध के हो जाने पर गुरु-आचार्य, उपाध्याय आदिकों की वन्दना करे । अर्थात् इन-इन प्रकरणों में गुरुओं की वन्दना करनी होती है। किस स्थान में वन्दना करना' जो यह प्रश्न था उसका उत्तर दे दिया है।
१ क अणुण्णचित्त में।
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