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________________ ४३२] [मूलाचारे वर्तनं तदभिप्रायानुकुलाचरणं, देशयोग्यं कालयोग्यं च यद्दानं स्वद्रव्योत्सर्गस्तदेतत्सर्व लोकानूवत्तिविनयो लोकात्मीकरणाओं यथाऽयं विनयोंजलिकरणादिकः प्रयुज्यते तथाऽजलिकरणादिको योऽर्थनिमित्तं क्रियते सोऽर्थहेतुः ॥५८४॥ तथा एमेव कामतंते भयविणनो चेव प्राणुपुठवीए। पंचमनो खलु विणो परूवणा तस्सिमा होदि ॥५८५॥ यथा लोकानुवृत्तिविनयो व्याख्यातस्तथैवं कामतन्त्रो भयार्थश्च भवति आनुपूर्व्या विशेषाभावात्, यः पुनः पंचमो विनयस्तस्येयं प्ररूपणा भवतीति ।।५८५॥ दसणणाणचरित्ते तवविणओ ओवचारियो चेव । मोक्खलि एस विणो पंचविहो होदि णायव्वो ॥५८६॥ दर्शनज्ञानचारित्रतप औपचारिकभेदेन मोक्षविनय एषः पंचप्रकारो भवति ॥५८६।। स पंचाचारे यद्यपि विस्तरेणोक्तस्तथाऽपि विस्मरणशीलशिष्यानुग्रहार्थ संक्षेपतः पुनरुच्यत इतिअपने द्रव्य का त्याग करना यह सब लोकानुवृत्ति विनय है, क्योंकि यह लोक को अपना करने के लिए अंजुलि जोड़ना आदि यथार्थ विनय किया जाता है। उसी प्रकार से जो अर्थ के निमित्त -प्रयोजन के लिए अंजुलि जोड़ना आदि उपर्युक्त विनय किया जाता है वह अर्थनिमित्त विनय है। भावार्थ—सामने वाले के अनुकूल वचन बोलना, उसी के अनुकल कार्य करना आदि जो विनय लोगों को अपना बनाने के लिए किया जाता है वह लोकानुवृत्ति विनय है और जो कार्य सिद्धि के लिए उपयुक्त क्रियाओं का करना है सो अर्थनिमित्त विनय है। उसी प्रकार से कामतन्त्र और भय विनय को कहते हैं गाथार्थ-इसी प्रकार से कामतन्त्र में विनय करना कामतन्त्र विनय है और इसी क्रम से भय हेतु विनय करना भय विनय है । निश्चय से पंचम जो विनय है उसकी यह-आगे प्ररूपणा होती है ।।५८५।।। प्राचारवत्ति-जैसे लोकानुवृत्ति विनय का व्याख्यान किया है, उसी प्रकार से काम के निमित्त विनय कामतन्त्र विनय है तथा वैसे ही क्रम से भय-निमित्त विनय भयविनय है। इनमें कोई अन्तर नहीं है अर्थात् अभिप्राय मात्र का अन्तर है, क्रियाओं में कोई अन्तर नहीं है। अब जो पाँचवाँ मोक्ष विनय है उसकी आगे प्ररूपणा करते हैं। ___ गाथार्थ-दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप में विनय तथा औपचारिक विनय यह पाँच प्रकार का मोक्ष विनय जानना चाहिए ॥५८६।। प्राचारवृत्ति-गाथा सरल है।। यह मोक्ष विनय यद्यपि पंचाचार के वर्णन में विस्तार से कहा गया है फिर भी विस्मरणशील शिष्यों के अनुग्रह के लिए पुनः संक्षेप से कहा जाता है१ क र्थगतोनि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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