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षडावश्यकाधिकारः]
[४१६ स भावोद्योतो जिनवरेन्द्रः पंचविधः पंचप्रकारः खलु स्फुटं, भणितः प्रतिपादितः। आभिनिबोधिकश्रुतावधिज्ञानमनःपर्ययकेवलमयो मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानभेदेन पंचप्रकार इति ॥५५६॥
द्रव्यभावोद्योतयोः स्वरूपमाह
दव्वुज्जोवोजोवो पडिहण्णादि परिभिदह्मि खेत्तसि।
भावुज्जोवोजोवो लोगालोग पयासेदि ॥५५७॥
द्रव्योद्योतो य उद्योतः स प्रतिहन्यतेऽन्येन द्रव्येण परिमिते च क्षेत्र वर्तते। भावोद्योतः पूनरुद्योतो लोकमलोकं च प्रकाशयति न प्रतिहन्यते नापि परिमिते क्षेत्र वर्ततेऽप्रतिघातिसर्वगतत्वादिति ॥५५७।।
तस्मात्
लोगस्सुज्जोवयरा दव्वुज्जोएण ण हु जिणा होंति । . भावुज्जोवयरा पुण होंति जिणवरा चउव्वीसा ॥५५८।।
बोधिक, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान हैं ऐसा जानना॥५५६॥
प्राचारवृत्ति-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान के भेद से वह भावोद्योत पाँच प्रकार का है ऐसा श्रीजिनेन्द्र ने कहा है।
द्रव्यभाव उद्योत का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ-द्रव्योद्योत रूप प्रकाश अन्य से बाधित होता है, परिमित क्षेत्र में रहता है और भावोद्योत प्रकाश, लोक-अलोक को प्रकाशित करता है ॥५५७॥
प्राचारवृत्ति-जो द्रव्योद्योत का प्रकाश है वह अन्य द्रव्य के द्वारा नष्ट हो जाता है और सीमित क्षेत्र में रहता है। किन्तु भावोद्योत रूप प्रकाश लोक और अलोक को प्रकाशित करता है, किसी के द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता है और न परिमित क्षेत्र में ही रहता है; क्योंकि वह अप्रतिघाती और सर्वगत है । अर्थात् ज्ञानरूप प्रकाश सर्व लोक-अलोक को प्रकाशित करनेवाला है. किसी मेघ या राहु आदि के द्वारा वाधित नहीं होता है और सर्वत्र व्याप्त होकर रहता है। किन्तु सूर्य, मणि आदि के प्रकाश अन्य के द्वारा रोके जा सकते हैं एवं स्वल्प क्षेत्र में ही प्रकाश करनेवाले हैं।
इसलिए
गाथार्थ-जिनेन्द्र भगवान् निश्चितरूप से द्रव्यउद्योत के द्वारा लोक को प्रकाशित करनेवाले नहीं होते हैं, किन्तु वे चौबीसों तीर्थंकर तो भावोद्योत से प्रकाश करनेवाले.होते हैं ॥५५८॥ यह गाथा फलटन से प्रकाशित प्रति में अधिक है
लोयालोयपयासं अक्खलियं णिम्मलं असंदिद्ध।
जंणाणं अरहता भावुज्जोवो त्ति वुच्चंति ।। अर्थात् जो ज्ञान लोकालोक को प्रकाशित करता है, कभी स्खलित नहीं होता है, निर्मल है, संभयरहित है, अरिहंतदेव ऐसे ज्ञान को भावोद्योत कहते हैं।
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