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________________ ४१४] [मूलाधारे शेषा जीवपुद्गलधर्माधर्मकाला अक्षेत्राणि अवगाहनलक्षणाभावात् । जीवपुद्गलाः क्रियावन्तो गतेर्दर्शनात् शेषा धर्माधर्माकाशकाला अक्रियावन्तो गतिक्रियाया अभावदर्शनात् । नित्या धर्माधर्माकाशपरमार्थकाला व्यवहारनयापेक्षया व्यञ्जनपर्यायाभावमपेक्ष्य विनाशाभावात् । जीवपुद्गला अनित्या व्यञ्जनपर्यायदर्शनात् । कारणानि पुद्गलधर्माधर्मकालाकाशानि जीवोपकारकत्वेन वृत्तत्वात् । जीवोऽकारणं स्वतंत्रत्वात् । जीवः कर्ता शुभाशुभभोक्तृत्वात् । शेषा धर्माधर्मपुद्गलाकाशकाला अकर्तारः शुभाशुभभोक्तृत्वाभावात् आकाशं सर्वगतं सर्वत्रोपलभ्यमानत्वात् । शेषाण्यसर्वगतानि जीवपुद्गलधर्माधर्मकालद्रव्याणि सर्वत्रोपलंभाभावात् । तस्मात्परिणामजीवमूर्तसप्रदेशकक्षेत्रक्रियावन्नित्यकारणकर्तृ सर्वगति [गत] स्वरूपेण द्रव्यलोकं जानीहि, इतरैश्चापरिणामादिभिः प्रदेशः द्रव्यलोकं जानीहीति सम्बन्धः ॥५४७॥ . क्षेत्रलोकस्वरूपं विवृण्वन्नाह अक्रियावान् हैं क्योंकि इनमें गति क्रिया का अभाव है। धर्म, अधर्म, आकाश और परमार्थकाल नित्य हैं, क्योंकि व्यवहार नय की अपेक्षा से, व्यंजन पर्याय के अभाव की अपेक्षा से, उनका विनाश नहीं होता है। अर्थात् इन द्रव्यों में व्यंजन पर्याय नहीं होने से उनका विनाश नहीं होता है। जीव और पुद्गल अनित्य हैं क्योंकि इनमें व्यंजन पर्याय देखी जाती है। अर्थात् जीव, पुद्गल भी द्रव्याथिक नय से नित्य हैं किन्तु व्यंजन पर्याय की अपेक्षा से अनित्य हैं। पुदगल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश कारण हैं क्योंकि जीव के प्रति उपकार रूप से ये वर्तन करते हैं। किन्तु जीव अकारण है क्योंकि वह स्वतन्त्र है । जीव कर्ता है, क्योंकि वह शुभ और अशुभ का भोक्ता है। शेष धर्म, अधर्म, पुद्गल, आकाश और काल अकर्ता हैं, क्योंकि उनमें शुभ, अशुभ के भोक्तत्व का अभाव है । आकाश सर्वगत है क्योंकि वह सर्वत्र उपलब्ध हो रहा है। किन्तु शेष बचे जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल द्रव्य असर्वगत हैं क्योंकि इनके सर्वत्र (लोकालोक में) उपलब्ध होने का अभाव है। ___ इसलिए परिणाम, जीव, मूर्त, सप्रदेश, एक, क्षेत्र, क्रियावान, नित्य, कारण, कर्तृत्व और सर्वगत इन स्वरूप से द्रव्य लोक को जानो। इससे इतर अर्थात् अपरिणाम, अजीव, अमूर्त आदि प्रदेशों से द्रव्यलोक को जानो, ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिए । भावार्थ-यहाँ पर 'भिन्न रूप धारण करना' यह परिणाम का लक्षण किया है। यह मात्र व्यंजन पर्याय की अपेक्षा रखता है । अन्यत्र परिणाम का लक्षण ऐसा किया है कि पूर्व पर्याय को छोड़कर उत्तर पर्याय को ग्रहण करते हुए अपने मूल स्वभाव को न छोड़ना उस लक्षणवाला परिणाम तो सभी द्रव्यों में पाया जाता है । इसलिए व्यंजन पर्याय की दृष्टि से जीव और पुद्गल इनमें ही परिणमन होता है। शेष चार द्रव्य अपरिणामी हो जाते हैं किन्तु अर्थपर्याय की अपेक्षा से छहों द्रव्य परिणामी हैं। कूटस्थ नित्य अपरिणामी नहीं हैं। जीव पुद्गल में अन्यथा परिणमन देखा जाता है किन्तु शेष द्रव्य अपने-अपने सजातीय परिणमन की अपेक्षा से परिणमनशील हैं। ऐसे ही, आगे भी छहों द्रव्यों में नय विवक्षा से यथायोग्य जीवत्व, मूर्तत्व, सप्रदेशत्व इत्यादि धर्म घटित करना चाहिए। क्षेत्रलोक का स्वरूप कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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