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________________ पावश्यकाधिकारः] [४०१ यस्य संज्ञा आहारभयमैथुनपरिग्रहाभिलाषा विकृति विकारं न जनयन्ति । तथा यस्य लेश्याः कृष्णनीलकापोतपीतपद्मलेश्याः कषायानुरञ्जितयोगवृत्तयो विकृति विकारं न जनयन्ति तस्य सामायिकमिति ॥५२६॥ कामेन्द्रियविषयवर्जनद्वारेण सामायिकमाह जो दुरसे य फासे य कामे वज्जदि णिच्चसा ॥५२६॥ रसः कटुकषायादिभेदभिन्नः, स्पर्शो मृद्वादिभेदभिन्नः रसस्पशी काम इत्युच्यते । रसनेन्द्रियं स्पर्शनेन्द्रियं च कामेन्द्रिये। यो रसस्पशी कामौ वर्जयति नित्यं । कामेन्द्रियं च निरुणद्धि तस्य सामायिकमिति। भोगेन्द्रियविषयवर्जनद्वारेण सामायिकमाह जो रूवगंधसद्दे य भोगे वज्जदि णिच्चसा ।।५३०॥ यः रूपं कृष्णनीलादिभेदभिन्न, गन्धो द्विविधः सुरभ्यसुरभिभेदेन च, शब्दो वीणावंशादिसमुद्भवः, रूपगन्धशब्दा भोगा इत्युच्यन्ते, चक्षणिश्रोत्राणि भोगेन्द्रियाणि, यो रूपगन्धशब्दान वर्जयति, भोगेन्द्रियाणि आचारवृत्ति-जिनके आहार, भय, मैथुन और परिग्रह इनकी अभिलाषारूप चार संज्ञाएँ विकार को उत्पन्न नहीं करती हैं, तथा जिनके कृष्ण, नील, कापोत, पीत और पद्म ये कषाय के उदय से अनुरंजित योग की प्रवृत्तिरूप लेश्याएँ विकार को पैदा नहीं करती हैं उनके सामायिक होता है। कामेन्द्रिय के विषय वर्जन द्वारा सामायिक को कहते हैं गाथार्थ-जो मुनि रस और स्पर्श इन काम को नित्य ही छोड़ते हैं उनके सामायिक होता है ऐसा जिन शासन में कहा है । प्राचारवृत्ति-कटु, कषाय, अम्ल, तिक्त और मधुर ऐसे रस पाँच हैं। मृदु, कठोर, लघु, गुरु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष ऐसे स्पर्श के आठ भेद हैं । इन रस और स्पर्श को काम कहते हैं तथा रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय को कामेन्द्रिय कहते हैं। जो मुनि रस और स्पर्श का नित्य ही वर्जन करते हैं और कामेन्द्रिय का निरोध करते हैं उन्हीं के सामायिक होता है। भोगेन्द्रिय के विषय-वर्जन द्वारा सामायिक को कहते हैं गाथार्थ-जो रूप, गन्ध और शब्द इन भोगों को नित्य ही छोड़ देता है उसके सामायिक होता है ऐसा जिनशासन में कहा है ॥५३०॥ आचारवृत्ति-कृष्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेत ये रूप के पाँच भेद हैं। सुरभि के और असुरभि के भेद से गन्ध दो प्रकार का है । और, वीणा बाँसुरी आदि से उत्पन्न हुए शब्द अनेक प्रकार के हैं। इन रूप, गन्ध और शब्द को भोग कहते हैं तथा इनको ग्रहण करने वाली चक्षु, घ्राण एवं कर्ण इन तीनों इन्द्रियों को भोगेन्द्रिय कहते हैं। जो मुनि इन रूप, गन्ध और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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