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________________ ७. षडावश्यकाधिकारः प्रायेण जायते पुंसां वीतरागस्प दर्शनम् । तहर्शनविरक्तानां भवेज्जन्मापि निष्फलम् ॥ षडावस्यकत्रियं मूलगुणान्तर्गतमधिकारं प्रपंचेन विवृण्वन् प्रथमतर तावन्नमस्कारमाह काऊण णमोकारं प्ररहताणं तहेव सिद्धाणं । आइरियउबज्झाए लोगम्मि य सम्बसाहूणं ॥५०२॥ कृत्वा नमस्कार, केषामहतां तथैव सिद्धानां, आचार्योपाध्यायानां च लोके च सर्वसाधनां। लोकसन्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते । कारशब्दो येन तेन षष्ठी संजाताऽन्यथा पुनश्चतुर्थी भवति । अर्हत्सिद्धाचार्योपा. ध्यायसाधूभ्यो लोकेऽस्मिन्नमस्कृत्वा आवश्यक नियुक्ति वक्ष्ये इति सम्बन्धः सापेक्षत्वात् यत्वान्तप्रयोगस्येति ॥५०२॥ नमस्कारपूर्वक प्रयोजनमाह श्लोकार्य-जीवों को प्रायः ही वीतराग का दर्शन होता है और जो वीतराग भगवान् के दर्शन से विरक्त हैं उनका जन्म भी निष्फल है । मूलगुण के अन्तर्गत जो षट्- आवश्यक क्रिया नामक अधिकार है उसे विस्तार से कहते हुए, उसमें सबसे पहले नमस्कार वचन कहते हैं ---- गावार्थ--अर्हन्तों को, सिद्धों को, आचार्यों को, उपाध्यायों को, और लोक में सर्वसाधुओं को नमस्कार करके मैं आवश्यक अधिकार कहूँगा ॥५०२॥ प्राचारवृत्ति 'लोक' शब्द का प्रत्येक के साथ सम्बन्ध करना चाहिए। 'अरहताणं' आदि पदों में जो षष्ठी विभक्ति है उसमें कारण यह है कि नमः शब्द के साथ 'कार' शब्द का किया गया है। यदि नमः शब्द मात्र होता तो पुनः चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग किया जाता। तात्पर्य यह हुआ कि इस लोक में जो अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु हैं उनको नमस्कार करके मैं आवश्यक नियुक्ति का कथन करूंगा, ऐसा सम्बन्ध करना चाहिए; क्योंकि 'क्त्वा' प्रत्यय वाले शब्दों का प्रयोग सापेक्ष रहता है, वह अगली क्रिया की अपेक्षा रखता है। अब नमस्कार पूर्वक प्रयोजन को बतलाते हैं-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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