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________________ पिण्डशुद्धि-अधिकारः] [३६७ तंदुलादिचूर्णेन सप्रवालेन अपक्व शाकेन अप्रासुकोदकेन वा आणैव हस्तेन भाजनेन वा यद्देयं तल्लिप्त नाम दोषं विजानीहि ॥४७४।। परित्यजनदोषमाह बहु परिसाडणमुज्झिन आहारो परिगलत दिज्जतं । छंडिय भुजणमहवा 'छंडियदोसो हवे णेओ ॥४७५॥ बहुपरिसातनमुज्झित्वा बहुप्रसातनं कृत्वा भोज्यं स्तोकं त्याज्यं बहुपात्रहारेण सोऽपि बहुपरिसातनमित्युच्यते । आहारं परिगलतं दीयमानं तक्रघृतोदकादिभिः परिस्रवंतं छिद्रहस्तैश्च बहुपरिसातनं च कृत्वाहारं यदि गृह्णाति त्यक्त्वा चैकमाहारमपरं भुक्ते यस्तस्य त्यक्तदोषो भवति । एते अशनदोषाः दश परिहरणीयाः । सावद्यकारणाज्जीवदयाहतोलॊकजूगुप्सा ततश्चेति ॥४७॥ संयोजनाप्रमाणदोषानाह संजोयणा य दोसो जो सजोएदि भत्तपाणं तु । अदिमत्तो पाहारो पमाणदोसो हवदि एसो॥४७६।। संयोजनं च दोषो भवति । यः संयोजयति भक्तं पानं तु । शीतं भक्तं पानेनोष्णेन संयोजयति । चावल आदि का आटा, सप्रवाल-अपक्वशाक, अथवा अप्रासुक जल इन वस्तुओं से लिप्त हए हाथ से या वर्तन से जो आहार दिया जाता है वह लिप्त नाम के दोष से सहित है ऐसा जानो। परित्यजन दोष को कहते हैं--- गाथार्थ-बहुत-सा गिराकर, या गिरते हुए दिया गया भोजन ग्रहण कर और भोजन करते समय गिराकर जो आहार करना है वह व्यक्त दोष है ऐसा जानना चाहिए ॥४७५।। आचारवृत्ति-बहुत-सा भोजन गिराकर आहार लेना अर्थात् भोजन की वस्तुएँ थोड़ी हाथ में रखना, बहुत-सी गिरा देना सो भी परिसातन कहलाता है। घी, छाछ, जल आदि वस्तु देते समय हाथ से बहुत गिर रही हों या अपने छिद्र सहित अंजली पुट से इन वस्तुओं को बहुत गिराते हुए आहार लेना, तथा एक कोई वस्तु हाथ से गिराकर अन्य कोई इष्ट वस्तु खा लेना इत्यादि प्रकार से मुनि के व्यक्त दोष होता है। ये दश अशन दोष कहे गये हैं जो कि त्याग करने योग्य हैं। ये सावद्य को करने वाले हैं । इनसे जीवदया नहीं पलती है और लोक में निन्दा भी होती हैं अतः ये त्याज्य है। संयोजना और प्रमाण दोष को कहते हैं गाथार्थ-जो भोजन और पान को मिला देता है सो संयोजना दोष है। अतिमात्र आहार लेना सो यह प्रमाण दोष होता है ॥४७६।। प्राचारवृत्ति-ठण्डा भोजन उष्ण जल से मिला देना, या ठण्डे जल आदि पदार्थ उष्ण भात आदि से मिला देना । अन्य भी परस्पर विरुद्ध वस्तुओं को मिला देना संयोजना दोष है। १क छोडिय। २क हारे सो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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