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________________ आये इस प्रकार द्रव्य व भाव दोनों प्रकार के श्रुतज्ञान को प्राप्त कर गुरु-परिपाटी से हुए सिद्धान्त को जानकर श्री पद्मनन्दि मुनि ने कोण्डकुण्डपुर में १२००० श्लोक प्रमाण कर्मनाम की षट्खंडगम के प्रथम तीन खण्डों की व्याख्या की । इनकी प्रधान रचनायें हैं ' षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर परिकर्म नाम की टीका, समयसार, प्रवचनसार, नियमसार, अष्टपाहुड, पंचास्तिकाय, रयणसार इत्यादि ८४ पाहुड, मूलाचार, दशभक्ति और कुरलकाव्य' : इन ग्रन्थों में रयणसार श्रावक व मुनिधर्म दोनों का प्रतिपादन करता है। मूलाचार मुनि धर्म का वर्णन करता है । अष्टपाहुड के चारित्रपाहुड में संक्षेप से श्रावक धर्म वर्णित है । 'कुरल काव्य' नीति का अनूठा ग्रन्थ है । और परिकर्म टीका में सिद्धान्त का विवेचन है । 'दश भक्ति' सिद्ध, आचार्य आदि की उत्कृष्ट भक्ति का ज्वलंत उदाहरण है । शेष सभी ग्रन्थ मुनियों के सराग चरित्र और निर्विकल्प समाधि रूप वीतराग चारित्र के प्रतिपादक हैं । ६. गुरु — गुरु के विषय में कुछ मतभेद हैं । फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि श्री भद्रबाहु श्रुतकेवली इनके परम्परा गुरु थे । कुमारनन्दि आचार्य शिक्षागुरु हो सकते हैं । किन्तु अनेक प्रशस्तियों से यह स्पष्ट है कि इनके दीक्षा गुरु 'श्री जिनचन्द्र' आचार्य थे 1 - ७. जन्म स्थान – इसमें भी मतभेद हैं- जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश में कहा है"दक्षिणोदेशे मलये हेमग्रामे मुनिर्महात्मासीत् । एलाचार्यो नाम्नो द्रविड गणाधीश्वरो धीमान् । यह श्लोक हस्तलिखित मंत्र ग्रन्थ में से लेकर लिखा गया है जिससे ज्ञात होता है कि महात्मा एलाचार्य दक्षिण देश के मलय प्रान्त में हेमग्राम के निवासी थे । और द्रविड़ संघ के अधिपति थे । मद्रास प्रेजीडेन्सी के मलया प्रदेश में 'पोन्नूरगाँव' को ही प्राचीनकाल में हेमग्राम कहते थे, और सम्भवतः वहीं कुन्दकुन्दपुर रहा होगा। इसीके पास नीलगिरि पहाड़ पर श्री एलाचार्य की चरणपादुका बनी हुई हैं। पं० नेमिचंद्र जी भी लिखते हैं- "कुन्दकुन्द के जीवन परिचय के सम्बन्ध में विद्वानों ने सर्वसम्मति से स्वीकार किया है कि वे दक्षिण भारत के निवासी थे । इनके पिता का नाम कर्मण्डु और माता का नाम श्रीमती था । इनका जन्म 'कोण्डकुन्दपुर' नामक ग्राम में हुआ था । इस गाँव का दूसरा नाम 'कुरमरई' नामक जिले में है ।" "कुरलकाव्य । पृ० २१ -- पं० गोविन्दराय शास्त्री ८. समय - आचार्य कुन्दकुन्द के समय में भी मतभेद है । फिर भी डॉ० ए०एन० उपाध्ये ने इनको ई० सन् प्रथम शताब्दी का माना है । कुछ भी हो ये आचार्य श्री भद्रबाहु के अनन्तर ही हुए हैं यह निश्चित है, क्योंकि इन्होंने प्रवचनसार और अष्टपाहुड में सवस्त्रमुक्ति और स्त्रीमुक्ति का अच्छा खण्डन किया है । १. जैनेन्द्र सि. को, भाग २, पृ. १२६ २. तीर्थंकर महावीर, पृ. १०१ । ४० / मूलाचार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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