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________________ पंचाचाराधिकारः] [३१३ विषये चौरदायादिमारणोद्यमे यत्नस्तृतीयं रौद्र । तथा षड्विधे जीवमारणारम्भे कृताभिप्रायश्चतुर्थ रोद्रमिति ॥३६७॥ तत: ___ अवहट्ट अट्टरुद्दे महाभए सुग्गदीयपच्चूहे। धम्मे वा सुक्के वा होहि समण्णागदमदीनो ॥३६७॥ यत एवंभूते आर्तरोद्रे । किविशिष्टे, महाभये महासंसारभीतिदायिनि (नी) सुगतिप्रत्यूह-देवगतिमोक्षगतिप्रतिकूले । अपहृत्य निराकृत्य । धर्मध्याने शुक्लध्याने वा भव सम्यग्विधानेन गतमतिः । धर्मघ्याने शुक्लध्याने च सादरो सुष्ठ विशुद्ध मनो विधेहि समाहितमतिर्भवेति ॥३६७॥ धर्मध्यानभेदान् प्रतिपादयन्नाह एयग्गेण मणं रिंभिऊण धम्मं चउन्विहं झाहि। प्राणापायविवायविचनो य संठाणविचयं च ॥३९८॥ एकाग्रेण पंचेन्द्रियव्यापारपरित्यागेन कायिकवाचिकव्यापारविरहेण च । मनो मानसव्यापारं। पत्रादि के रक्षण के विषय में, चोर, दायाद अर्थात भागीदार आदि के मारने में प्रयत्न करना यह तीसरा रौद्रध्यान है और छह प्रकार के जीवों के मारने के आरम्भ में अभिप्राय रखना यह चौथा रौद्रध्यान है। विशेष-इन्हीं ध्यानों के हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी ऐसे नाम भी अन्य ग्रन्थों में पाये जाते हैं। जिसका अर्थ है हिंसा में आनन्द मानना, झूठ में आनन्द भानना, चोरी में आनन्द मानना और परिग्रह के संग्रह में आनन्द मानना। यह ध्यान रुद्र अर्थात कर परिणामों से होता है। इसमें कषायों की तीव्रता रहती है अतः इसे रौद्रध्यान कहते हैं। इसके बाद क्या करना? सो कहते हैं गाथार्थ-सुगति के रोधक महाभयरूप इन आर्त, रौद्रध्यान को छोड़कर धर्मध्यान में अथवा शवलध्यान से एकाग्रबुद्धि करो ॥३६७।। प्राचारवृत्ति-महासंसार भय को देनेवाले और देवगति तथा मोक्षगति के प्रतिकूल ऐसे इन आर्तध्यान और रौद्रध्यान को छोड़कर धर्मध्यान शुक्लध्यान में अच्छी तरह अपनी मति लगाओ। अर्थात् धर्म और शुक्लध्यान में आदर सहित होकर अच्छी तरह अपने विशुद्ध मन को लगाओ, उन्हीं में एकाग्रबुद्धि को करो। धर्मध्यान के भेदों को कहते हैं-- गाथार्थ—एकाग्रता पूर्वक मनको रोककर उस धर्म का ध्यान करो जिसके आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ये चार भेद हैं ॥३६८ ॥ प्राचारवृत्ति-पंचेन्द्रिय विषयों के व्यापार का त्याग करके और कायिक वाचिक व्यापार से भी रहित होकर, एकाग्रता से मानस-व्यापार को रोककर अर्थात् मनको अपने वश करके, चार प्रकार के धर्मध्यान का चिन्तवन करो। वे चार भेद कौन हैं ? ऐसी आशंका होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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