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________________ पंचाचाराधिकारः] पंचप्रकारो भवति स्वाध्यायः । परिवर्तनमे को वाचना द्वितीयः पृच्छना तृतीयोऽनुप्रेक्षा चतुर्थो धर्मकथास्तुतिमंगलानि समुदितानि पंचमः प्रकारः । एवं पंचविधः स्वाध्यायः सम्यग्युक्तोऽनुष्ठेय इति ॥३६३॥ ध्यानस्वरूपं विवृण्वन्नाह अटुंच रुद्दसहियं दोण्णिधि झाणाणि अप्पसत्थाणि । धम्म सुक्कं च दुवे पसत्थझाणाणि णेयाणि ॥३६४॥ आर्तध्यानं रौद्रध्यानेन सहितं । एते द्वे ध्याने अप्रशस्ते नरकतिर्यग्गतिप्रापके। धर्मध्यानं शक्लध्यानं चैते द्वे प्रशस्ते देवगतिमुक्तिगतिप्रापके। इत्येवंविधानि ज्ञातव्यानि। एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमिति ॥३६५॥ आर्तध्यानस्य भेदानाह--- प्रमणुण्णजोगइट्टविओगपरीसहणिदाणकरणेसु। अटुं कसायसहियं झाणं भणिदं समासेण ॥३६॥ अमनोज्ञेन ज्वरशूलशत्रुरोगादिना योग: सम्पर्कः। इष्टस्य पुत्रदुहितृमातृपितृबन्धुशिष्यादिकस्थ वियोगोऽभावः । परीषहाः क्षुत्तृट्छीतोष्णादयः । निदानकरणं इहलोकपरलोकभोगविषयोऽभिलापः । इत्येतेष प्रदेशेष्वार्तमनःसंक्लेश: कषायसहितं ध्यानं भणितं समासेन संक्षेपतः । कदा ममानेनामनोज्ञेन वियोगो भविष्य और (५) समूहरूप धर्मकथा स्तुतिमंगल-इन पाँच प्रकार के स्वाध्याय का सम्यक् प्रकार से अनुष्ठान करना चाहिए। ध्यान का स्वरूप वर्णन करते हैं--- गाथार्थ—आर्त और रौद्र सहित दो ध्यान अप्रशस्त हैं। धर्म और शुक्ल ये दो प्रशस्त ध्यान हैं ऐसा जानना चाहिए ॥३६४॥ प्राचारवृत्ति-आर्तध्यान और रौद्र ध्यान ये दो ध्यान अप्रशस्त हैं। ये नरकगति और तिर्यंचगति को प्राप्त करानेवाले हैं। धर्म ध्यान और शुक्लध्यान ये दो प्रशस्त हैं। ये देवगति और मुक्ति को प्राप्त करानेवाले हैं, ऐसा समझना । एकाग्रचिन्तानिरोध-एक विषय पर चिन्तन का रोक लेना यह ध्यान का लक्षण है। आर्तध्यान के भेदों को कहते हैं गाथार्थ-अनिष्ट का योग, इष्ट का वियोग, परीषह और निदानकरण इनमें कषाय सहित जो ध्यान है वह संक्षेप से आर्तध्यान कहा गया है ।।३६५॥ प्राचारवृत्ति-अमनोज्ञयोग-ज्वर, शूल, शत्रु, रोग आदि का सम्पर्क होना, इष्टवियोग-पुत्र, पुत्री, माता, पिता, बन्धु, शिष्य आदि का वियोग होना, परिषह-क्षुधा, तृषा, शोत, उण्ण आदि बाधाओं का होना; निदान-इस लोक या परलोक में भोग-विषयों की अभिलाषा करना। इन स्थानों में जो आर्त अर्थात् मन का संक्लेश होता है वह कषाय सहित ध्यान आर्तध्यान कहलाता है। इनका वर्णन यहाँ संक्षेप से किया गया है । जैसे—कव मेरा इस अनिष्ट से वियोग होगा इस प्रकार से चिन्तन करना पहलाआर्तध्यान है । इष्टजनों के साथ यदि मेरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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