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________________ ३०४] [मूलाधारे अम्भुट्टाणं सण्णवि आसणदाणं अणुप्पदाणं च। किदियम्म पडिरूवं प्रासणचाओ य अणुग्वजणं ॥३८२॥. अम्युत्थानम् आदरेणोत्थानं । सन्नतिः शिरसा प्रणामः । आसनदानं पीठाद्युपनयनं । अनुप्रवान च पुस्तकपिच्छिकाद्युपकरणदानं । क्रियाकर्म श्रुतभक्त्यादिपूर्वककायोत्सर्गः प्रतिरूपं यथायोग्य, अथवा शरीरप्रतिरूपं कालप्रतिरूपं भावप्रतिरूपं च क्रियाकर्म शीतोष्णमूत्रपुरीषाद्यपनयनं । आसनपरित्यागो गुरोः पुरत उच्चस्थाने न स्थातव्यं । अनुव्रजनं प्रस्थितेन सह किंचिद्गमनमिति । अभ्युत्थानमेकः सन्नतिद्वितीय आसनदानं तृतीयः अनुप्रदानं चतुर्थः प्रतिरूपक्रियाकर्म पंचमः आसनत्यागः षष्ठोऽनुव्रजनं सप्तमः प्रकारः कायिकविनयस्येति ॥३८२॥ वाचिकमानसिकविनयभेदानाह___गाथार्थ-गुरुओं को आते हुए देखकर उठकर खड़े होना, उन्हें नमस्कार करना, आसन देना, उपकरणादि देना, भक्ति पाठ आदि पढ़कर बन्दना करना, या उनके कप कूल क्रिया करना, आसन को छोड़ देना और जाते समय उनके पीछे जाना ये सात भेदरूप कायिकविनय है ॥३८२॥ प्राचारवृत्ति-अभ्युत्थान-गुरुओं को सामने आते हुए देखकर आदर से उठकर खड़े हो जाना । सन्नति-शिर से प्रणाम करना । आसनदान-पीठ, काष्ठासन, पाटा आदि देना। अनुप्रदान-पुस्तक, पिच्छिका आदि उपकरण देना । प्रतिरूप क्रियाकर्म यथायोग्य-श्रुत भक्ति आदि पूर्वक कायोत्सर्ग करके वन्दना करना, अथवा गुरुओं के शरीर के प्रकृति के अनुरूप, काल के अनुरूप और भाव के अनुरूप सेवा शुश्रूषा आदि क्रियाएँ करना; जैसे कि शीतकाल में उष्ण कारी और उष्णकाल में शीतकारी आदि परिचर्या करना, अस्वस्थ अवस्था में उनके मल-मूत्रादि को दूर करना आदि । आसनत्याग-गुरु के सामने उच्चस्थान पर नहीं बैठना । अनुव्रजनउनके प्रस्थान करने पर साथ-साथ कुछ दूर तक जाना । इसप्रकार से (१) अभ्युत्थान, (२) सन्नति, (३) आसनदान, (४) अनुप्रदान, (५) प्रतिरूपक्रियाकर्म, (६) आसनत्याग और (७) अनुवजन-ये सात प्रकार कायिकविनय के होते हैं। वाचिक और मानसिक विनय के भेदों को कहते हैंफलटन से प्रकाशित में ये गाथाएँ इसके पहले हैं। ये गाथाएँ मूल में नहीं हैं उपचार विनय के दो भेदों का वर्णन-- अहबोवचारिओ खलु विगमो दुविहो समासदोहोदि । पडिरूवकालकिरियाणासादणसीलदा चेव ।। पडिकवो काइगवाचिगमाणसिगो दुवोधब्यो। सत्त चदुठिवह दुविहो जहाकम होदि भेदेण ॥ अर्थात् धर्मात्मा के चित्त पर अनुग्रह करने वाला औपचारिक विनय संक्षेप से दो प्रकार का है। प्रतिरूपकाल क्रिया विनय-गुरुओं के अनुरूप काल आदि को देखकर क्रिया अर्थात् भक्ति सेवा आदि करना। अनासादनशीलता विनय-आचार्यों आदि की निन्दा नहीं करने का स्वभाव होना, ऐसे दो भेद हैं। प्रतिरूप विनय कायिक, वाचिक और मानसिक भेद से तीन प्रकार का है। कायिकविनय सात प्रकार का, वाचिक चार प्रकार का और मानसिक विनय दो प्रकार का है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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