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________________ interfधकार: ] वृत्तिपरिसंख्यानस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह - गोयरपमाण दायगभायण णाणाविहाण जं गहणं । तह एसणस्स गहणं विविहस्स य वृत्तिपरिसंखा ॥ ३५५॥ गोचरस्य प्रमाणं गोचरप्रमाणं गृहप्रमाणं एतेषु गृहेषु प्रविशामि नान्येषु बहुष्विति । दायका दा तारो भाजनानि परिवेष्यपात्राणि तेषां यन्नानाविधानं नानाकरणं तस्य ग्रहणं स्वीकरण - दातृविशेषग्रहणं पात्रविशेषग्रहणं च । यदि वृद्धो मां विधरेत् तदानीं तिष्ठामि नान्यथा । अथवा वालो युवा स्त्री उपानत्करहितो वर्त्मनि स्थितोऽयथा वा विधरेत् तदानीं तिष्ठामीति । कांस्यभाजनेन रूप्यभाजनेन सुवर्णभाजनेन मृन्मयभाजनेन वा ददाति तदा गृहीष्यामीति यदेवमाद्यं । तथाशनस्य विविधस्य नानाप्रकारस्य यद्ग्रहणमवग्रहोपादानं, अद्य मकुष्ठं भोक्ष्ये नान्यत् । अथवाद्य मंडकान् सक्तून् ओदनं वा ग्रहीष्यामीति यदेवमाद्यं' ग्रहणं तत्सर्वं वृत्तिपरिसंख्यानमिति ॥ ३५५॥ कायक्लेशस्वरूपं विवृण्वन्नाह - वृत्तिपरिसंख्यान तप का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए आचार्य कहते हैं गाथार्थ -गृहों का प्रमाण, दाता का, वर्तनों का नियम ऐसे अनेक प्रकार का जो नियम ग्रहण करना है तथा नाना प्रकार के भोजन का नियम ग्रहण करना वृत्तिपरिसंख्यानव्रत है । ।। ३५५ ।। [२é श्राचारवृत्ति- गृहों के प्रमाण को गोचर प्रमाण कहते हैं। जैसे 'आज मैं इन गृहों में आहार हेतु जाऊँगा, और अधिक गृहों में नहीं जाऊँगा ऐसा नियम करना । दायक अर्थात् दातार और भाजन अर्थात् भोजन रखने के या भोजन परोसने के वर्तन - इनकी जो नाना प्रकार से विधि लेना है वह दायक-भाजन विधि अर्थात् दाता विशेष और पात्र विशेष की विधि ग्रहण करना है । जैसे, 'यदि वृद्ध मनुष्य मुझे पड़गाहेगा तो मैं ठहरूंगा अन्यथा नहीं, अथवा बालक, युवक, महिला, या जूते अथवा खड़ाऊँ आदि से रहित कोई पुरुष मार्ग में खड़ा हुआ मुझे पड़गाहे तो मैं ठहरूँगा अथवा ये अन्य अमुक विधि से मुझे पड़गाहें तो मैं ठहरूँगा' इत्यादि नियम लेकर चर्या के लिए निकलना । ऐसे ही बर्तन सम्बन्धी नियम लेना : जैसे, 'मुझे आज यदि कोई कांसे के बर्तन से, सोने के बर्तन से या मिट्टी के बर्तन से आहार देगा तो मैं ले लूँगा, या इसी प्रकार से अन्य और भी नियम लेना । तथा नाना प्रकार के भोजन सम्बन्धी जो नियम लेना है वह सब वृत्तिपरिसंख्यान है । जैसे, 'आज मैं मोठ ही खाऊँगा अन्य कुछ नहीं", " अथवा आज मंडे, सत्तू या भात ही ग्रहण करूँगा ।" इत्यादि रूप से जो भी नियम लिये जाते हैं वृत्तिपरिसंख्यान तप कहलाते हैं । १ क "माद्यग्र । Jain Education International भावार्थ - - इन्द्रिय और मन के निग्रह के लिए नाना प्रकार के तपदचरणों का अनुष्ठान किया जाता है । और इस वृत्तिपरिसंख्यान के नियम से भी इच्छाओं का निरोध होकर भूखप्यास को सहन करने का अभ्यास होता है । कायक्लेश तप का स्वरूप बतलाते हैं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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