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________________ २७४] सरवासेहि पडते हि जह दिढकवचो ग भिज्जदि सरेराह । तह समिदीहि ण लिप्पइ साहू काएसु इरियंतो ॥ ३२८ ॥ शरवर्षैः पतद्भिः संग्रामे यथा दृढकवचो दृढवर्म न भिद्यते शरैस्तीक्ष्णनाराचतोमरादिभिस्तथा षड्जीवनिकायेषु समितिभिर्हेतुभूताभिः साधुः पापेन न लिप्यते पर्यटन्नपीति ॥ ३२८ ॥ यत्नपरस्य गुणमाह जत्थेव चरदि बालो परिहारष्हूवि चरदि तत्येव । वझदि पुण सो बालो परिहारहू विमुच्चदि' सो ॥ ३२६ ॥ यत्रैव चरति भ्रमत्याचरतीति वा बालोऽज्ञानी जीवादिभेदातत्त्वज्ञः । परिहरमाणोऽपि चरत्यनुष्ठानं करोति भ्रमतीति वा तत्रैव लोके बध्यते कर्मणा लिप्यते पुनरसौ बाल अज्ञानः । परिहरमाणो यत्नपरः पुनः स विमुच्यते कर्मणा यस्मादेवंगुणा समितयः ॥ ३२६॥ [मूलाचारे तम्हा चेट्टिकामो जया तइया भवाहि तं संमिदो । समिदो हु ण ण दियदि खवेदि पोराणयं कम्मं ॥ २३० ॥ गाथार्थ --पड़ती हुई वाण की वर्षा के द्वारा जैसे मजबूत कवच वाला मनुष्य वाणों से नहीं भिदता उसी प्रकार साधु समितियों से सहित हो जीव-निकायों में चलते हुए भी पाप से लिप्त नहीं होता है ।। ३२८ ॥ Jain Education International आचारवृत्ति - जैसे संग्राम में वाणों की वर्षा होते हुए भी, जिसने मजबूत कवच धारण किया है वह मनुष्य तीक्ष्ण वाण या तोमर आदि शस्त्रों से नहीं भिदता है उसी प्रकार छह जीवनिकायों में पर्यटन करता हुआ भी समितियों के द्वारा प्रवृत्त हुआ साधु पाप से लिप्त नहीं होता है । जो प्रयत्न में तत्पर हैं उनके गुणों को बताते हैं नाथार्थ - जहाँ पर अज्ञानी विचरण करता है वहीं पर जीवों का परिहार करता हुआ ज्ञानी भी विचरण करता है । किन्तु कर्मबन्धन से वह अज्ञानी तो बँध जाता है लेकिन जीवों का परिहार करता हुआ वह मुनि कर्मबंध से मुक्त रहता है ।। ३२६ ।। आचारवृत्ति - जो जीवादि के भेदरूप तत्त्व को जानने वाला नहीं है ऐसा बाल-अज्ञानी जीव जिस स्थान पर विचरण करता है, भ्रमण करता है या आचरण करता है, और जो जीवों का परिहार करनेवाला है वह मुनि भी वहीं पर उसी लोक में विचरण करता है, अनुष्ठान करता है अथवा भ्रमण करता है किन्तु अज्ञानी जीव तो कर्मों से वध जाता है, और जीवों का परिहार करता हुआ प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्तिवाला मुनि कर्मों के बन्धन से मुक्त रहता है । यह समितियों का ही गुण अर्थात् माहात्म्य है, ऐसा समझना । गाथार्थ - इसलिए जब तुम चेष्टा करना चाहो तब समितिपूर्वक प्रवृत्त होओ। निश्चितरूप से समिति सहित मुनि अन्य कर्म ग्रहण नहीं करता है और पुराने कर्म का क्षय कर देता है ॥ ३३० ॥ १ क विमुंचदि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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