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________________ २७२] [मूलाचारे प्रायश्चित्तं भवति यतः । अथवा लहुए-लघु शीघ्र। अणिच्छयारे अनिच्छया कूर्वति मलच्युति समिणि महत्प्रायश्चित्तं न दातव्यं । यद्यपि प्रायश्चित्तं नात्रोपात्त तथापि सामर्थ्याल्लभ्यतेऽन्यस्याश्रुतत्वात् । अथवा लघुकेन कुशलेनेच्छाकारेणानुकूलेन प्रज्ञाश्रवणेन यदि प्रथमस्थानं शुद्ध द्वितीयं तृतीयं स्थानं वानुज्ञाप्य सम्बोध्य समिणि साधौ गुरौ वा प्रासुकं स्थानं दातव्यमिति ॥३२४॥ अनेन क्रमेण किंकृतं भवतीति चेदत आह-- पदिठवणासमिदीवि य तेणेव कमेण वण्णिदा होदि । वोसरणिज्जं दव्वं तु थंडिले वोसरंतस्स ॥३२॥ तेनैवोक्तक्रमेण प्रतिष्ठापनासमितिरपि वणिता व्याख्याता भवति । तेनोक्तक्रमेण व्युत्सर्जनीयं त्यजनीयं । स्थंडिले व्यावणितस्वरूपे व्युत्सृजतः परित्यजतः प्रतिष्ठापनाशुद्धिः स्यादिति ।। ३२५।। यहाँ पर कहना यह है कि जो साधु प्रयत्न में तत्पर हैं,सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करने वाले हैं उनके द्वारा यदि कदाचित् विना इच्छा से अकस्मात् रात्रि में अशुद्ध अप्रासुक भी स्थान में मल विसर्जित हो जाता है तो भी उन्हें उसे बड़ा प्रायश्चित्त नहीं देना चाहिए। यद्यपि यहाँ गाथा में प्रायश्चित्त शब्द का ग्रहण नहीं है फिर भी सामर्थ्य से उसी का ज्ञान होता है; क्योंकि अन्य और कुछ इस विषय में सुनने में नहीं आता है । अथवा 'लहए अणिच्छायारेण' इस पाठ को ऐसा संधिरूप कर दीजिए 'लहुएण इच्छाकारेण' और अर्थ ऐसा कीजिए लघुक-कुशल, इच्छाकार-अनुकूल ऐसा प्रज्ञाश्रमण मुनि यदि प्रथम स्थान अशुद्ध हो तो दूसरा या तीसरा स्थान बताकर सहधर्मी साधु या गुरु को प्रासुक स्थान देवे । विशेष--संघ में उस उस कार्यभार में कुशल मुनि को ही वह वह कार्य सौंपा जाता है। इसलिए गाथा ३२३ में प्रज्ञाश्रमण मुनि के विशेषण बताये गए हैं। उन गुणों से विशिष्ट मुनि रात्रि में साधुओं के दीर्घशंका या लघुशंका आदि के हेतु जाने के लिए स्थान का दिन में निरीक्षण कर लेते हैं और गुरुदेव को तथा अन्य मुनियों को बता देते हैं। अतः कदाचित् ऐसा प्रसंग किसी को आ जावे कि सहसा बाधा हो जाने पर लाचारी में अशुद्ध स्थान में भी मलादि त्याग करना पड़ जावे तो गुरु उसे बड़ा प्रायश्चित्त न देवें । दूसरा एक अर्थ यह किया है कि प्रज्ञाश्रमण मुनि द्वारा एक, दो या तीन ऐसे स्थान भी देखकर शुद्ध प्रासुक स्थान गुरु के लिए या मुनियों के लिए बताना चाहिए जहाँ कि वे रात्रि में बाधा निवृत्ति करके भी दोष के भागी न बनें । उनके बताए अनुसार ही संघस्थ मुनियों को प्रवृत्ति करना चाहिए। इससे संघ में व्यवस्था बनी रहेगी। इस क्रम से क्या विशेषता होती है ? ऐसा पूछने पर कहते हैं गाथार्थ त्याग करने योग्य मलादि को अचित्त स्थान में त्याग करते हुए मुनि के उसी क्रम से प्रतिष्ठापना समिति कही जाती है । ।३२५।। प्राचारवृत्ति-उपर्युक्त कथित क्रम से त्याग करने योग्य मलमूत्रादि को पूर्वोक्त निर्जन्तुक स्थान में विसर्जित करते हुए मुनि के प्रतिष्ठापना नाम की पांचवीं समिति शुद्ध होती है ऐसा समझना। इस प्रकार से पाँचों समितियों का व्याख्यान हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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