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________________ पंचाचाराधिकारः] [२६५ उग्गम उप्पादणएसणेहि पिडं च उवधि सज्ज'च। सोधंतस्य मुणिणो परिसुज्झइ एसणासमिदी ॥३१८॥ उद्गच्छत्युत्पद्यत आहारो यर्दोषस्त उद्गमदोषाः । उत्पाद्यते निष्पाद्यत आहारो यैस्त उत्पादनादोषाः । अश्यते भुज्यते आहारो वसत्यादयो वा यैस्तेऽशनदोपास्तैः । पिण्ड आहारः। उपधिः पुस्तकपिच्छकादिः । शय्या वसत्यादीन् शोधयतः सुष्ठु सावद्यपरिहारेण निरूपयतो, मुनेः परिशुद्धयतेऽशनसमितिः । अशनस्य सम्यग्विधानेन दोषपरिहारेणेति वा चरणमशनसमितिः । उद्गमोत्पादनाशनदोषैः पिण्डं उपधि शय्यां शोधयतो मुनेः परिशुद्धयतेऽशनसमितिरिति । एत उद्गमादयो दोषा: सप्रपंचेन पिण्डशुद्धौ वक्ष्यन्त इति नेह प्रतन्यन्ते, पुनरुक्तदोषभयात् । कथमेतान् दोषापरिहरति मुनिरित्याशंकायामाह चकारः (र) सूचितार्थ । सवितुरुदये देववन्दनां गाथार्थ-उद्गम, उत्पादन और एषणा दोषों के द्वारा आहार, उपकरण, और वसति आदि का शोधन करते हुए मुनि के एषणा समिति शुद्ध होती है ॥३१८।। प्राचारवृत्ति-जिन दोषों से आहार उद्गच्छति अर्थात् उत्पन्न होता है वे उद्गम दोष हैं। जिन दोषों से आहार उत्पाद्यते अर्थात् उत्पन्न कराया जाता है वे उत्पादन दोष हैं, और जिन दोषों से सहित आहार अथवा वसति आदि का अश्यते भुज्यते अर्थात्-उपभोग किया जाता है वे अशन दोष हैं। पिण्ड आहार को कहते हैं। उपधि से पुस्तक, पिच्छका आदि उपकरण लिये जाते हैं और शय्या शब्द से वसतिका आदि ग्राह्य हैं । इन आहार, उपकरण और वसतिका आदि का शोधन करते हुए अर्थात् अच्छी तरह से सावद्य का त्याग करके इन्हें स्वीकार करते हुए मुनि के विशुद्ध अशन समिति होती है । अथवा अशन--भोजन को सम्यग्विधान से सहित दोषों का परिहार करके ग्रहण करना अशनसमिति है। तात्पर्य यह हुआ कि उद्गम, उत्पादन और अशन दोषों से रहित आहार, उपकरण और वसतिका की शुद्धि करनेवाले मुनि शुद्ध अशनसमिति का पालन करते हैं। ये उद्गम आदि दोष विस्तार सहित पिण्डशुद्धि अधिकार में कहे जायेंगे, इसलिए पुनरुक्त दोष के भय से यहाँ पर इनका विस्तार नहीं करते हैं । स्पष्टीकरण यह है कि-उत् उपसर्ग पूर्वक गम् धातु से उद्गम शब्द बना है जिसका अर्थ है उत्पन्न होना। ये उद्गम दोष श्रावक के आश्रित हैं । उत् उपसर्ग पूर्वक पद् धातु से णिजन्त में उत्पादन शब्द बना है जिसका अर्थ है उत्पन्न कराया जाना । ये उत्पादन दोष मुनि के आश्रित माने गये हैं। अश् धातु का अर्थ है भोजन करना। इसी से अशन बना है। ये अशन सम्बन्धी दोष मुनि के भोजन के सम्बन्ध में हैं। ये ही दोष पुस्तक, पिच्छी, वसतिका आदि में भी निषिद्ध किये गये हैं। वहाँ पर अशन के स्थान में भुज् धातु से भोग या उप उपसर्ग पूर्वक उपभोग बनाकर उसका अर्थ ऐसा हो जाता है कि पिच्छी, पुस्तक आदि वस्तु के उपभोग के ये दोष हैं। शंका-मुनि इन दोषों का परिहार कैसे करते हैं ? समाधान ---गाथा में 'चकार' शब्द से जो अर्थ सूचित किया है उसे ही हम कहते हैं । १ पिंडमुवधि च इत्यापि पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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