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________________ २६२] [मूलाचारे आमंतणि प्राणवणी जायणिसंपुच्छणी य पण्णवणी। पच्चक्खाणी भासा छट्ठी इच्छाणुलोमा य ॥३१॥ संसयवयणी य तहा असच्चमोसा य अट्ठमी भासा। णवमी अणक्खरगया असच्चमोसा हवदि दिट्ठा ॥३१६॥ आमंत्र्यतेऽनयामंत्रणी । गहीतवाच्यवाचकसंबन्धो व्यापारान्तरं प्रत्यभिमुखी क्रियते यया सामंत्रणी भाषा। यथा हे देवदत्त इत्यादि । आज्ञाप्यतेऽनयेत्याज्ञापना। आज्ञां तवाहं ददामीत्येवमादि वचनमाज्ञापनी भाषा। याच्यतेऽनया याचना। यथा याचयाम्यहं त्वां किंचिदिति । पृच्छयतेऽनयेति पृच्छना । यथा पृच्छाम्यहं स्वामित्यादि । प्रज्ञाप्यतेऽनयेति प्रज्ञापना। यथा प्रज्ञापनाम्यहं त्वामित्यादि। प्रत्याख्यायतेऽनयेति प्रत्याख्याना यथा प्रत्याख्यानं मम दीयतामित्यादि भाषासमितिः सर्वत्र संबन्धः । इच्छया 'लोमानुक नेच्छा लोमा सर्वत्रानकला । यथा एवं करोमीत्यादि ॥३१।। संशयमव्यक्तं वक्तीति संशयवचनी। संशयार्थप्रख्यापनानभिव्यक्तार्था यस्माद्वचनात्संदेहरूपादों न प्रतीयते तद्वचनं संशयवचनी भाषेत्युच्यते । यथा दन्तरहितातिबालातिवृद्धवचनं, महिष्यादीनां च शब्दः । गाथार्थ-आमन्त्रण करनेवाली, आज्ञा करनेवाली, याचना करनेवाली, प्रश्न करनेवाली, प्रज्ञापन करनेवाली, प्रत्याख्यान करानेवाली छठी भाषा और इच्छा के अनुकूल बोलने वाली भाषा सातवी है। उसी प्रकार संशय को कहनेवाली असत्यमृषा भाषा आठवीं है तथा नवमी अनक्षरी भाषा रूप असत्यमृषा भाषा देखी गई है ॥३१५-३१६॥ आचारवृत्ति-जिसके द्वारा आमन्त्रण किया जाता है वह आमन्त्रणी भाषा है। जिसने वाच्य-वाचक सम्बन्ध जान लिया है उस व्यक्ति को अन्य कार्य से हटाकर अपनी तरफ उद्यत करना आमन्त्रणी भाषा है। जैसे, हे देवदत्त ! इत्यादि सम्बोधन वचन बोलना। इस शब्द से वह देवदत्त अन्य कार्य को छोड़कर बुलानेवाले की तरफ उद्यत होता है। जिसके द्वारा आज्ञा दी जाती है वह आज्ञापनी भाषा है। जैसे, 'मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ।' इत्यादि वचन बोलना। जिसके द्वारा याचना की जाती है वह याचनी भाषा है। जैसे, 'मैं तुमसे कुछ माँगता हूँ।' जिसके द्वारा प्रश्न किया जाता है वह पृच्छना है। जैसे, 'मैं आपसे पूछता हूँ' इत्यादि। जिसके द्वारा प्रज्ञापना की जाये वह प्रज्ञापनी भाषा है । जैसे, 'मैं आपसे कुछ निवेदन करता हूँ' इत्यादि । जिसके द्वारा कुछ त्याग किया जाता है वह प्रत्याख्यानी है । जैसे, 'मुझे प्रत्याख्यान दीजिए' इत्यादि। १ क यानुलो । २ क 'छातुलों। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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