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________________ पंचाचाराधिकारः] [२४७ अथ रात्रिभोजननिवृत्यादिनिरूपणोत्तरप्रबन्धः किमर्थ इति पृष्टेऽत आह तेसिं चेव वदाणं रक्खटुं रादिभोयणणियत्ती'। अट्ठय पवयणमादा य भावणाओ य सव्वानो॥२६॥ तेषामेव महाव्रतानां रक्षणार्थ रात्रिभोजननिवृत्तिः। रात्री भोजनं तस्य निवृत्ती रात्रिभोजननिवृत्तिः । बुभुक्षितोऽपि भोजनकालेऽतिक्रान्ते नैवाहारं चिन्तयति । नाप्युदकादिकं । अष्टो प्रवचनमातृका-पंच समितयस्त्रिगुप्तयः। भावनाश्च सर्वाः पंचविंशतयः महाव्रतानां पालनाय वक्ष्यन्त इति ॥२६॥ यते रात्री भोजनक्रियायां प्रविशतो दोषानाह तेसि पंचण्हं पि य ण्हयाणमाषजणं च संका वा। प्रादविवत्ती अ हवे रादीमत्तप्पसंगेण ॥२६६॥ तेषां पंचानामप्यह्नवानां व्रतानामासमन्ताच्यावर्जनं भंगः म्लानता, आशङ्का वा लोकस्य रात्रिभोजननिवृत्ति आदि निरूपण के लिए जो उत्तरप्रबन्ध है वह किसलिए है ? ऐसा पूछने पर कहते हैं गाथार्थ-उन ही व्रतों की रक्षा के लिए रात्रिभोजन का त्याग, आठ प्रवचन मातृकाएं और सभी भावनाएं हैं ॥२६॥ प्राचारवृत्ति-उन्हीं ही पांच महाव्रतों की रक्षा के लिए रात्रिभोजन-त्याग व्रत है। मुनि क्षुधा से पीड़ित होते हुए भी भोजनकाल निकल जाने पर आहार का विचार नहीं करते हैं। प्रवचन-मातृका आठ हैं--पाँच समिति और तीन गुप्ति । सभी भावनाएं पच्चीस हैं। महाव्रतों के पालन हेतु इन सबको आगे कहेंगे। यदि मुनि रात्रि में भोजन के लिए प्रवेश करते हैं तो क्या दोष आते हैं ? सो ही बताते हैं गाथार्थ-रात्रिभोजन के प्रसंग से उन पांचों व्रतों में भी मलिनता अथवा आशंका और अपने पर विपत्ति भी हो जाती है ॥२६६॥ प्राचारवृत्ति-यदि मुनि रात्रि में भोजन के लिए निकलते हैं तो उन पांचों भी अह्नव-व्रतों में सब तरह से भंग, म्लानता–मलिनता हो जाती है। अथवा लोगों को आशंका हो सकती है कि यह दीक्षित हुए मुनि किसलिए यहाँ रात्रि में प्रवेश करते हैं । अर्थात ये चोरी के लिए आ रहे हैं या व्यभिचार के लिए आ रहे हैं इत्यादि आशंकाएं भी लोगों के मन में उठने लगेंगी। गृहस्थों की विपत्ति अथवा स्वयं को भी विपत्तियाँ आ सकती हैं। अर्थात ठंठ लग जाने से, पशुओं के पास से, चोरों के द्वारा त्रास देने से या कुत्ते के भोंकने से-काट देने से या कोतवाल द्वारा पकड़ लिए जाने आदि के प्रसंगों से अपने पर संकट भी आ सकता है। इसलिए रात्रिभोजन का त्याग कर देना चाहिए। १ 'विरत्ती' इत्यादि पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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