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कुलवयसीलविणे सुत्तत्थं सम्मगागमित्ताणं । कुलवयसीलमहल्ले णिण्हवदोसो दु जप्पंतो ॥ २८४ ॥
कुलं गुरुसन्ततिः, व्रतानि हिंसादिविरतयः, शीलं व्रतपरिरक्षणाद्यनुष्ठानं तैर्विहीना म्लाना: कुलव्रतशीलविहीनाः । मठादिपालनेनाज्ञानादिना वा गुरुः सदोषस्तस्य शिष्यो ज्ञानी तपस्वी च कुलहीन इत्युच्यते । अथवा तीर्थंकरगणधरसप्तधिसंप्राप्तेभ्योऽन्ये यतयः कुलव्रतशीलविहीनास्तेभ्यः कुलव्रतशील विहीनेभ्यः सम्यक्शास्त्रमवगम्य ज्ञात्वा कुलव्रतशीलयें महान्तस्तान् यदि कथयति तेभ्यो मया शास्त्रं ज्ञातमित्येवं तस्य जल्पतो विदोषो भवति । आत्मनो गर्व मुद्वहता शास्त्रनिह्नवो गुरुनिह्रवश्च कृतो भवति । ततश्च महान् कर्मबन्धः । जैनेन्द्र च शास्त्रं पठित्वा श्रुत्वा पश्चाज्जल्पति न मया तत्पठितं, न तेनाहं ज्ञानीति किन्तु नैयायिक-वैशेषिकसांख्य-मीमांसा-धर्म कीर्त्यादिभ्यो मम बोध: संजात इति निर्ग्रन्थयतिभ्यः शास्त्रमवगम्यान्यान् प्रतिपादयति ब्राह्मणादीन्, कस्माल्लोकपूजाहेतोर्यदा मिथ्यादृष्टिरमौ तदाप्रभृति मन्तव्यः निह्नवदोषेणेति । सामान्ययतिभ्यो ग्रन्थं श्रुत्वा तीर्थंकरादीन् प्रतिपादयत्येवमपि निह्नवदोष इति ॥ २८४॥
[मूलाचारे
गाथार्थ-कुल, व्रत और शील से हीन व्यक्ति से सूत्र और अर्थ को ठीक से पढ़कर 'कुल, व्रत और शील से महान् व्यक्ति से मैंने पढ़ा है' ऐसा कहना निह्नव दोष है | ||२८४॥ श्राचारवृत्ति -- गुरु की संतति-परम्परा का नाम कुल है । हिंसा आदि पाँच पापों से विरति होना व्रत है | व्रतों के रक्षण आदि हेतु जो अनुष्ठान हैं उसे शील कहते हैं । इन कुल, व्रत और शील से जो हीन हैं, म्लान हैं वे कुल, व्रत और शील विहीन हैं । अर्थात् मठादिकों का पालन करने से अथवा अज्ञान आदि से गुरु सदोष होते हैं ऐसे गुरु के शिष्य यद्यपि ज्ञानी और तपस्वी हैं फिर भी वे शिष्य कुलहीन कहे जाते हैं । अथवा तीर्थंकर भगवान, गणधर देव और सप्तऋद्धि सम्पन्न महामुनियों से अतिरिक्त जो अन्य यतिगण हैं वे यहाँ पर कुल व्रत और शील से विहीन माने गए हैं। उन कुलव्रतशील से विहीन यतियों से समीचीन शास्त्रों को समझकर, पढ़कर जो ऐसा कहते हैं कि 'मैंने कुल व्रत और शील में महान् ऐसे गुरु से यह शास्त्र पढ़ा है' इस प्रकार से कहनेवाले उन मुनि के निह्नव नाम का दोष होता है । अपने आप गर्वको धारण करते हुए मुनि के शास्त्र-निह्नव और गुरुनिह्नव दोष होता है और इससे महान् कर्मबन्ध होता है ।
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जिनेन्द्रदेव कथित शास्त्रों को पढ़कर या सुनकर पुनः यह कहता है कि मैंने वह शास्त्र नहीं पढ़ा है, उस शास्त्र से मैं ज्ञानी नहीं हुआ हूँ । किन्तु नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसा बौद्ध गुरु धर्मकीर्ति आदि से मुझे ज्ञान उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार निर्ग्रन्थ यतियों से शास्त्र समझकर अन्य का नाम, ब्राह्मण आदि का नाम प्रतिपादित करने लगता है ।
ऐसा किसलिए ?
लोक में पूजा के लिए । अर्थात् लोक में कोई अन्य ख्यातिप्राप्त हैं और अपने गुरु कुछ कम ख्यात हैं इसलिए इनका - प्रसिद्ध गुरु या ग्रन्थ का नाम लेने से मेरी लोक में पूजा होगी । यदि ऐसा समझकर कोई मुनि गुरुनिह्नव या शास्त्रनिह्नव करते हैं तो वे निह्नव दोष के निमित्त से उसी समय से मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं । सामान्य यतियों से ग्रन्थ को सुनकर जो तीर्थंकर आदि का नाम प्रतिपादित कर देते हैं ऐसा करने से भी वे निह्नव दोष के भागी होते हैं । यह अनि शुद्धि पाँचवीं है ।
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