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________________ पंचाचाराधिकारः]] |२३७ उद्देस समुद्देसे अणुणापणए अ होंति पंचेव । अंगसुदखंधझेणुवदेसा विय पदविभागीय ॥२८०॥ उद्देशे प्रारम्भकाले, समुद्देशे शास्त्रसमाप्तौ, अनुज्ञार्पणायां गुरोरनुज्ञायां भवन्ति पंचैव । नात्र केचन निर्दिष्टास्तथाप्युपदेशादुपवासाः कायोत्सर्गी वा ग्राह्याः। अथवा अनुज्ञायां एतावत्पंच पणका व्यवहाराः प्रायश्चित्तानि पंचैव भवन्ति ते चोपवासाः कायोत्सर्गा वा । अंग द्वादशाङ्गानि । श्रुतं चतुर्दशपूर्वाणि । स्कन्धः वस्तूनि । झणुव-प्राभूतं । देशश्च प्राभूतप्राभृतं । पदविभागादेकैकशः। अंगस्याध्ययनप्रारम्भे समाप्ती बुद्धिमच्छिष्यानुज्ञायामुपवासाः कायोत्सर्गा वा पंच कर्तव्या भवन्ति । एवं पूर्वाणां, वस्तूनां, प्राभूतानां, प्राभूतप्राभूतानां प्रारम्भे समाप्ती अनुज्ञायामेकैकशः पंच पंचोपवासा: कायोत्सर्गा वा कर्तव्या भवन्तीति ।।२८०॥ गाथार्थ-अंग, पूर्व, वस्तु, प्राभृत, प्राभृतक इनमें से किसी एक-एक के प्रारम्भ में, समाप्ति में और अनुज्ञा के लेने में पाँच ही (क्रियाएँ) होती हैं ॥२८०॥ आचारवृत्ति-अंग-बारहअंग, श्रुत-चौदहपूर्व, स्कन्ध-वस्तु, प्राभूत-प्राभृतक, देश-प्राभूतप्राभृत, इन ग्रन्थों में से पदविभागी-एक-एक का अध्ययन प्रारम्भ करने में अर्थात् अंग या बारह अंगों में से किसी एक के उद्देश्य-अध्ययन के प्रारम्भ में, समुद्देश- उस ग्रन्थ के अध्ययन की समाप्ति में और अनुज्ञा-गुरु से उस विषय में आज्ञा लेने पर पाँच ही होते हैं। यहाँ पर पाँच कहकर किसी क्रिया का निर्देश नहीं किया है कि पाँच क्या होते हैं। फिर भी उपदेश के निमित्त से पाँच उपवास या पाँच कायोत्सर्ग ग्रहण करना चाहिए। अथवा अनज्ञा में इतने ही पाँच पणक-व्यवहार अर्थात् प्रायश्चित्त समझना। अर्थात् पाँच ही उपवास या पाँच कायोत्सर्ग रूप प्रायश्चित्त होते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि बुद्धिमान शिष्य को अंग का अध्ययन प्रारम्भ करने तथा समाप्ति में और गुरु से आज्ञा लेने में ये पाँच उपवास अथवा पाँच कायोत्सर्ग करना चाहिए। ऐसे ही पूर्वग्रन्थ, वस्तुग्रन्थ, प्राभूतग्रन्थ, प्राभृतप्राभृत-ग्रन्थ-इन ग्रन्थों में किसी एक के भी प्रारम्भ में, समाप्ति में और उस विषय में गुरु की आज्ञा लेने पर पाँच-पाँच उपवास या पाँच-पाँच कायोत्सर्ग करना चाहिए। विशेषार्य-"अर्थाक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्तिक, अनुयोग, प्राभृत-प्राभृत, प्राभृत, वस्तु और पूर्व ये नव तथा इनमें प्रत्येक के साथ समास पद जोड़ने से हुए नव अर्थात् अक्षरसमास, पदसमास आदि ऐसे ये अठारह भेद द्रव्यश्रुत के होते हैं। इन्हीं में पर्याय और पर्यायसमास के मिलाने से बीस भेद ज्ञानरूप श्रुत के होते हैं। ग्रन्थरूप श्रुत की विवक्षा करने पर आचारांग आदि बारहअंग और उत्पाद, पूर्व आदि चौदह पूर्व होते हैं अर्थात् द्रव्यश्रुत और भावश्रुत की अपेक्षा दो भेद किये गये हैं। उनमें से शब्दरूप और ग्रन्थरूप सब द्रव्यश्रुत हैं। ज्ञानरूप को भावभु त कहते हैं। तथा अंगबाह्य नाम से चौदह प्रकीर्ण भी लिये जाते हैं।" उपर्युक्त अठारह भेदों के अर्न्तगत जो प्राभृतप्राभूत कहे हैं उनमें से एक-एक वस्तु अधिकार में बीस-बीस प्राभूत होते हैं और एक-एक प्राभृत में चौबीस-चौबीस प्राभृत-प्राभूत होते हैं। आगे पूर्व नामक श्रुतज्ञान के चौदह भेद हो जाते हैं । इन सबका विशेष लक्षण गोम्मटसार जीवकाण्ड की ज्ञानमार्गणा से समझना चाहिए। १. गोम्मटसार जीवकांड, ज्ञानमार्गणा, गाथा ३४८-३४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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