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पंचाचाराधिकारः]
[२३५ सूत्र अंगपूर्ववस्तुप्राभृतादि गणधर देवैः कथितं सर्वज्ञमुखकमलादर्थं गृहीत्वा ग्रन्थस्वरूपेण रचितं गौतमादिभिः । तथैवैकं कारणं प्रत्याश्रित्य बद्धाः प्रत्येकबद्धाः। धर्मश्रवणाद्यपदेशमन्तरेण चारित्रावरणादिक्षयोपशमात्, ग्रहणोल्कापातादिदर्शनात् संसारस्वरूपं विदित्वा गृहीतसंयमाः प्रत्येकबुद्धास्तैः कथितं । श्रुतकेवलिना कथितं रचितं द्वादशांगचतुर्दशपूर्वधरेणोपदिष्टं । अभिन्नानि रागादिभिरपरिणतानि दशपूर्वाणि उत्पादपूर्वादीनि येषां तेऽभिन्नदशपूर्वास्तैः कथितं प्रतिपादितमभिन्नदशपूर्वकथितं च सूत्रमिति सम्बन्ध ॥२७७॥
तत्सूत्रं किम्
तं पढिदुमसज्झाये णो कप्पदि विरद इत्थिवग्गस्स।
एत्तो अण्णो गंथो कप्पदि पढि, असज्झाए ॥२७॥ तत्सूत्रं पठितुमस्वाध्याये न कल्प्यते न युज्यते विरतवर्गस्य संयतसमूहस्यस्त्रीवर्गस्य चार्यिकावर्गस्य
प्राचारवृत्ति-सर्वज्ञदेव के मुखकमल से निकले हुए अर्थ को ग्रहण कर गौतम देव आदि गणधर देवों द्वारा ग्रन्थ रूप से रचित जो अंग, पूर्व, वस्तु और प्राभृतक आदि हैं वे सूत्र कहलाते हैं । जो किसी एक कारण को निमित्त करके प्रबुद्ध हुए हैं वे प्रत्येकबुद्ध हैं अर्थात् जो धर्म-श्रवण आदि उपदेश के बिना ही चारित्र के आवरण करनेवाले ऐसे चरित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से बोध को प्राप्त हुए हैं, जिन्होंने ग्रहण-सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण या उल्कापात आदि देखने से संसार के स्वरूप को जानकर संयम ग्रहण किया है वे प्रत्येकबुद्ध हैं। अर्थात् प्रत्येकबुद्धि नाम की एक प्रकार की ऋद्धि से सहित जो महर्षि हैं उनके द्वारा कथित शास्त्र सूत्रसंज्ञक है।
उसी प्रकार से द्वादशांग और चौदहपूर्व ऐसे सम्पूर्ण श्रुत के धारक जो श्रुतकेवली हैं उनके द्वारा कथित-उपदिष्ट-रचितशास्त्र भी सूत्र संज्ञक हैं। जो ग्यारह अंग और उत्पादपूर्व से लेकर विद्यानुवाद नामक दशवें पूर्व को पढ़कर पुनः रागादि भावों में परिणत नहीं हुए हैं वे अभिन्न दशपूर्वी हैं । उनके द्वारा प्रतिपादित शास्त्र भी सूत्र हैं ऐसा समझना।
विशेष-दशवें पूर्व को पढ़ते समय मुनि के पास अनेक विद्यादेवता आती हैं और उन्हें नमस्कार कर उनसे आज्ञा माँगती हैं। तब कोई मुनि चारित्रमोहनीय के उदय से चारित्र से शिथिल होकर उन विद्याओं को स्वीकार करके चारित्र से भ्रष्ट हो जाते हैं। इनमें रुद्र तो नियम से दशवें पूर्व को पढ़कर भ्रष्ट होकर दुर्गति के भाजन बनते हैं और, कुछ मुनि वापस चारित्र में स्थिर हो जाते हैं वे भिन्न दशपूर्वी कहलाते हैं। और कुछ मुनि इन विद्या देवताओं को वापस कर देते हैं, स्वयं चारित्र से चलायमान नहीं होते हैं वे अभिन्न दशपूर्वी कहलाते हैं।
इन सूत्रों के लिए क्या विधान है
गाथार्थ-अस्वाध्याय काल में मुनिवर्ग और आर्यिकाओं को इन सूत्रग्रन्थ का पढ़ना ठीक नहीं है । इनसे भिन्न अन्य ग्रन्थ को अस्वाध्याय काल में पढ़ सकते हैं ॥२७८॥
__ आचारवृत्ति-विरतवर्ग अर्थात् संयतसमूह को और स्त्रीवर्ग अर्थात् आर्यिकाओं को अस्वाध्यायकाल में पूर्वोक्त कालशुद्धि आदि से रहित काल में इन सूत्रग्रन्थों का स्वाध्याय
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