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________________ पंचाचाराधिकार:] [२२१ तव्यो मार्गस्योद्योत: कर्तव्यो जीवदयानुकम्पायुक्तेन, अथवा जीवदयानुकम्पया च धर्मः प्रभावयितव्यः तथापिशब्दसूचितैः परवादिजयाष्टांगनिमित्तदानपूजादिभिश्च धर्मः प्रभावयितव्य इति ॥२६४।। अधिगमस्वरूपं प्रतिपाद्य नैसर्गिकसम्यक्त्वस्वरूपप्रतिपादनायाह जं खलु जिणोवदिटुंतमेव तत्थित्ति भावदो गहणं । सम्मइंसणभावो तग्विवरीदं च मिच्छत्तं ॥२६॥ यत्तत्त्वं जिनरुपदिष्टं प्रतिपादितं तदेव तथ्यं सत्यं खलु व्यक्तमित्येवं भावतः परमार्थेन ग्रहणं यत्सम्यग्दर्शनभावः आज्ञासम्यक्त्वमिति यावत् । तद्विपरीतं मिथ्यात्वमसत्यरूपेण जिनोपदिष्टस्य तत्त्वस्य ग्रहणं मिथ्यात्वं भवतीति ॥२६५।। दर्शनाचारसमर्पणाय ज्ञानाचारसूचनायोत्तरगाथा शास्त्रार्थ करके उन पर जय से अष्टांग निमित्त के द्वारा तथा दान, पूजा आदि के द्वारा भी धर्म की प्रभावना करना चाहिए। भावार्थ-धर्मोपदेश के द्वारा घोर-घोर तपश्चरण और ध्यान आदि के द्वारा, जीवों की रक्षा के द्वारा तथा परवादियों से विजय द्वारा, अष्टांग निमित्त के द्वारा; आहार, औषधि, अभय और ज्ञान दान द्वारा तथा महापूजा महोत्सव आदि के द्वारा जैन धर्म की प्रभावना की जाती है। इस प्रकार से अधिगम सम्यक्त्व का स्वरूप प्रतिपादित करके अब नैसर्गिक सम्यक्त्व का स्वरूप बतलाते हैं- . गाथार्थ-जो जिनेन्द्र देव ने कहा है वही वास्तविक है इस प्रकार से जो भाव से ग्रहण करना है सो सम्यग्दर्शन है और उससे विपरीत मिथ्यात्व है ॥२६॥ आचारवत्ति-जिन तत्त्वों का जिनेन्द्र देव ने उपदेश किया है स्पष्ट रूप से वे ही सत्य हैं इस प्रकार जो परमार्थ से ग्रहण करना है वह आज्ञा सम्यक्त्व है और उससे विपरीत अर्थात जिनोपदिष्ट तत्त्वों को असत्यरूप से ग्रहण करना मिथ्यात्व है, ऐसा समझना। भावार्थ-इस सम्यक्त्व में आठ प्रकार के शंकादि दोषों को न लगाकर निर्दोष रूप से आठ अंग पूर्वक जो सम्यग्दर्शन का पालन करना है वह दर्शनाचार कहलाता है। अब दर्शनाचार को पूर्ण करने हेतु और ज्ञानाचार को कहने की सूचना हेतु अगलो गाथा कहते हैं फलटन से प्रकाशित प्रति में इस गाथा के स्थान पर निम्नलिखित गाथा दी है-- संवेगोवरग्गो णिवा गरिहा य उवसमो भत्ती। अणुकंपा वच्छल्ला गुणा य सम्मत्तजुत्तस्स ॥ अर्थ-संवेग, वैराग्य, निन्दा, गर्दा, उपशम, भक्ति, अनुकम्पा और वात्सल्य-सम्यक्त्व के ये आठ गुण होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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