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________________ पंचाचाराधिकारः] [२१३ च्छाकारणपुदगलस्कंधः। उण्हा-उष्णं पूर्वोक्तप्रकारेण सन्निधानाच्छीताभिलाषकारणादित्यज्वरादिसन्तापः । बंसमसयं-दंशाश्च मशकाश्च दंशमशकं दंशमशकःखाद्यमानस्य शरीरपीडा दंशमशकमित्युच्यते कार्य कारणोपचारात् । अचेलभावो य-अचेलकत्वं नाग्न्यमिति यावत् । अरदिरदि-अरतिरती चारित्रमोहोदयात् चारित्रद्वेषासंयमाभिलाषी । इत्थि--स्त्रीकटाक्षेक्षणादिभिर्योषिताधा कार्ये कारणोपचारात् । चरिया-चर्या आवश्यका. द्यनुष्ठानपरस्यातिश्रान्तस्याप्युपानकादिरहितस्यापि मार्गयानं । निसीधिया-निषिद्या श्मशानोद्यानशून्यायतनादिषु वीरासनोत्कुटिकाद्यासनजनितपीडा। सेज्जा-शय्या स्वाध्यायध्यानाध्वश्रमपरिखेदितस्य खरविषमप्रचुरशर्कराद्याकीर्णभूमौ शयनस्यैकपार्श्वे दण्डशयनादिशय्याकृतपीडा। अक्कोसो-आक्रोशस्तीर्थयात्राद्यर्थपर्यटतः मिथ्यादृष्टिविमुक्तावज्ञासंघनिन्दावचनकृताबाधा । वह-बधः मुद्गरादिप्रहरणकृतपीडा । जायणं ३. चारित्रमोहनीय और वीर्यान्तराय की अपेक्षा करके और असाता के उदय से जो शरीर को ढकने की इच्छा के कारणभूत पुद्गलस्कन्ध हैं उसे शीत कहते हैं । ४. पूर्वोक्त प्रकार तीनों कर्मों के सन्निधान से ठण्ड की अभिलाषा के लिए कारणभूत सूर्य अथवा ज्वर आदि से जो संताप होता है वह उष्ण कहलाता है। ___५. डांस और मच्छरों के द्वारा डसने पर जो शरीर में पीड़ा होती है वह दंसमशक कहलाती है । अर्थात् यहाँ कार्य में कारण का उपचार किया है । इसलिए दंशमशक को ही परिषह कह दिया है। ६. नग्न अवस्था का नाम अचेलकत्व है। ७. चारित्रमोह के उदय से चारित्र में दुष-अरुचि होना और असंयम की अभिलाषा होना सो अरतिरति-परिषह है। ८. स्त्रियों का कटाक्ष से देखना आदि द्वारा जो बाधा है यह स्त्री-परीषह है। यहाँ पर भी कार्य से कारण का उपचार किया है। ___ आवश्यक आदि क्रियाओं के अनुष्ठान में तत्पर, जो कि अत्यन्त थके हुए हैं, उनका पादत्राण आदि से रहित होकर भी नंगे पैरों जो मार्ग में चलना है वह चर्या-परीषह है। १० श्मशान में, उद्यान में या शून्य मकान आदि में वीरासन, उत्कुटिकासन आदि आसनों से बैठने पर जो पीड़ा होती है वह निषद्या-परीषह है। ११. स्वाध्याय, ध्यान या मार्ग का श्रम, इनसे थके हुए मुनि तीक्ष्ण, विषम-ऊँचीनीची, या अधिक कंकरीली रेत आदि से व्याप्त भूमि में जो एक पसवाड़े से या दण्डाकार आदि रूप से शयन करते हैं उस शयन आदि में जो शय्या के निमित्त से शरीर में पीड़ा उत्पन्न होती है वह शय्या-परिषह है। १२. तीर्थ यात्रा आदि के लिए जाते हुए मुनि के प्रति जो मिथ्यादृष्टि जन अवज्ञा करते हैं या संघ की निन्दा के वचन बोलते हैं उससे हुई बाधा आक्रोश-परिषह है। १३. मुद्गर आदि के प्रहार से की गयी पीड़ा बध-परीषह है। १४. रोगादि के निमित्त से पीड़ा होने पर भले ही प्राण चले जायें किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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