SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचाचाराधिकारः ] विचिकित्सास्वरूपमाह - बिगिच्छा वि य दुविहा दव्वे भावे य होइ णायव्वा । उच्चाराविसु दव्वे खुधादिए भावविदिगछा ॥ २५२॥ विचिकित्सापि द्विप्रकारा द्रव्यभावभेदात् भवति ज्ञातव्या उच्चारप्रश्रवणादिषु मूत्रपुरीषादिदर्शने विचिकित्सा द्रव्यगता क्षुदादिषु क्षुत्तृष्णानग्नत्वादिषु भावविचिकित्सा व्याधितस्य वान्यस्य वा यतेर्मूत्राशुचिच्छदिश्लेष्मलालादिकं यदि दुर्गन्धिविरूपमिति कृत्वा घृणां करोति वैयावृत्यं न करोति स द्रव्यविचिकित्सायुक्तः एक ही हैं । नैयायिक सम्प्रदायवाले ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानते हैं । इनके यहाँ सोलह तत्त्व माने गये हैं- प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रह स्थान । इन्हें ये पदार्थ भी कहते हैं । [२११ वैशेषिक भी ईश्वर को सृष्टि का कर्ता सिद्ध करते हैं । इन्होंने सात पदार्थ माने हैंद्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव । इन पदार्थों के अतिरिक्त अन्य विषयों में प्रायः नैयायिक और वैशेषिक की मान्यताएँ "एक महर्षि कणाद नाम के हुए हैं इन्होंने ही वैशेषिक दर्शन को जन्म दिया है । कहा जाता है कि ये इतने संतोषी थे कि खेतों से चुने हुए अन्न को लाकर ही अपना जीवनयापन करते थे । इस लिए उपनाम कणाद या कणचर हो गया । इनका वास्तविक नाम उलूक था ।" 1 Jain Education International तापसियों का लक्षण तो स्पष्ट ही है । सांख्य दर्शन में पच्चीस तत्त्व माने गये हैं । इनके यहाँ मूल में दो तत्त्व हैं - प्रकृति और पुरुष । प्रकृति से हो तो सारा संसार बनता है और पुरुष भोक्ता मात्र है, कर्ता नहीं है ।। २५१ ॥ अब विचिकित्सा का स्वरूप कहते हैं- गाथार्थ - द्रव्य और भाव के विषय की अपेक्षा विचिकित्सा दो प्रकार की होती है ऐसा जानना | मल-मूत्र आदि द्रव्यों में द्रव्य विचिकित्सा और क्षुधा आदि भावों में भावविचिकित्सा होती है ॥२५२ ।। प्राचारवृत्ति - विचिकित्सा अर्थात् ग्लानि के द्रव्य और भाव की अपेक्षा दो भेद हो हैं । -मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं को देखकर उनमें ग्लानि करना द्रव्यविचिकित्सा है और भूख, प्यास, नग्नत्व आदि में ग्लानि करना भावविचिकित्सा है । अर्थात् व्याधि से पीड़ित अथवा अन्य मुनि के मूत्र, मल, वमन, कफ और थूकुलार आदि के विषय में ये दुर्गंधित हैं, खराब हैं ऐसा सोचकर घृणा करता है, उन मुनि की वैयावृत्ति नहीं करता है वह द्रव्य विचिकित्सा करनेवाला कहलाता है। जैन मत में और तो सभी सुन्दर है, किन्तु जो भूख, प्यास For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy