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________________ २०८] [ मूलाचारे त्रिविधा भवति कांक्षाभिलाष इह लोकविषया परलोकविषया तथा कुधर्मविषया च । इह लोके मम यदि गजतुरगद्रव्यपशुपुत्रकलत्रादिकं भवति तदानीं शोभनोऽयं धर्मः । परलोके चैतन्मम स्यात्, भोगा मे सन्तु लोकधर्मश्च शोभनः सर्वपूज्यस्तमहमपि करोमीति कांक्षा । तां त्रिप्रकारामपि यो न कुर्यात् स जीवो दर्शनशुद्धिमुपगतः । कांक्षामन्तरेण यदि सर्वं लभ्यते किमिति कृत्वा काङ्क्षा क्रियते । निद्यते च सर्वैः काङ्क्षावानिति ॥ २४६ ॥ आचारवृत्ति - कांक्षा अर्थात् अभिलाषा के तीन भेद हैं-इह लोक सम्बन्धी, परलोक सम्बन्धी और कुधर्म सम्बन्धी । यदि मुझे इस लोक में हाथी, घोड़े, द्रव्य, पशु, पुत्र, स्त्री आदि मिलते हैं तब तो यह धर्म सुन्दर है ऐसा सोचना इह लोक आकांक्षा है । परलोक में ये वस्तुएँ मुझे मिलें, भोग प्राप्त होवें यह सोचना परलोक आकांक्षा है । लौकिक धर्म सुन्दर है, सर्वजनों । अरहंतसिद्ध चेदियपवयणगणणाणभत्तिसंपुष्णो । बदि बहु सो पुणं ण हु सो कम्मक्खयं कुणदि ॥ अर्थात् अर्हत, सिद्ध, चैत्य, प्रवचन --- परमागम, गण----- -- चतुविध संघ और ज्ञान में जो भक्ति सम्पन्न है वह बहुत से पुण्य का संचय करता है किन्तु वह कर्मक्षय नहीं करता है । अर्थात् सम्यक्त्व सहित प्रशस्त राग से परम्परया मुक्ति है साक्षात् नहीं है । [ यह गाथा भी 'पंचास्तिकाय' में है ] अशुभोपयोग का स्वरूप विसयकसाओ गाढो दुस्सु विदुच्चित्तदृट्ठ गोट्टिजुदो । उग्गो उम्मग्गपरो उबओगो जस्स सो असुहो ॥ अर्थात् जो विषय और कषायों से आबद्ध हैं, जो कुशास्त्र के पठन या श्रवण में लगे हैं, अशुभ परिणामवाले हैं, दुष्टों की गोष्ठी में आनन्द मानते हैं, उग्र स्वभावी हैं और उन्मार्ग में तत्पर हैं; उपर्युक्त प्रकार से जिनका उपयोग है वह अशुभ कहलाता है। [यह गाया 'प्रवचनसार' में है ] शुद्धोपयोग का लक्षण - Jain Education International सुविविदपदत्थजुत्तो संजमतव संजुदो विगदरागो । समणो समसुदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगोत्ति ॥ अर्थात् सम्यक्प्रकार से जीवादि पदार्थों को जानकर श्रद्धालु संयम और तप से संयुक्त वैराग्य सम्पन्न या वीतरागी और सुख-दुःख में समभावी श्रमण शुद्धोपयोगी कहलाता है। [यह गाथा भी 'प्रवचन सार' में है ] सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का स्वरूप -- जं खलु जिणोर्वादिट्ठ तमेव तत्थमिदि भावदो गहणं । सम्मण भावो तं विवरीवं च मिच्छतं ॥ अर्थात् जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित पदार्थों का जो स्वरूप है वह सत्य है ऐसा मानकर उसको परमार्थ से ग्रहण करना सम्यग्दर्शन है और उससे विपरीत ग्रहण करना मिथ्यादर्शन है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001838
Book TitleMulachar Purvardha
Original Sutra AuthorVattkeracharya
AuthorGyanmati Mataji
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages580
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, Religion, & Principle
File Size12 MB
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